विचार और भाव-1
+रमेशराज
----------------------------------------------------------------------
भाव का सम्पूर्ण क्षेत्र विचार का क्षेत्र है। जो काव्य-मर्मज्ञ
काव्य से विचार-सत्ता के अस्तित्व को नकारने की कोशिश करते हैं और उसे सिर्फ भावक्षेत्र
की सीमा में बाँध लेना चाहते हैं, ऐसे विद्वजनों को
सोचना चाहिए कि विचार के बिना किसी भी भाव
का उद्बुद्ध होना संभव नहीं है।
काव्य के
बारे में इतना तो तय है कि किसी भी सामाजिक में रसनिष्पत्ति विभाव, संचारी भाव, अनुभाव और स्थायी भाव के संयोग के कारण ही
होती है, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि जब तक सामाजिक,
विभाव की क्रियाओं, अनुक्रियाओं, भावों, अनुभावों अर्थात् उसकी समस्त उद्दीपन प्रक्रिया
को अर्थ देकर, एक विशेष निर्णय की स्थिति में नहीं पहुँच जाता,
तब तक उसके मन में किसी भी प्रकार के भाव का निर्माण नहीं होता।
रसाचार्य
भट्लोलट्ट व शंकुक अपने रसोत्पत्तिवाद में जब नटी और नट में रस की उत्पत्ति का कारण
राम और सीता का अनुकरण मानते हैं, तब अनुकरण का अर्थ
क्या है? इस प्रश्न को वैज्ञानिक तरीके से सुलझाया जाना आवश्यक
नहीं? अनुकरण का सीधा
अर्थ यह निकलता है कि नट और नटी मंच पर जाने या अभिनय करने से पूर्व यह विचार कर लेते
हैं कि हमें मंच पर राम और सीता का अभिनय करना है। इसके लिए वह रामकथा का अध्ययन कर,
राम और सीता की चारित्रिक विशेषताओं, उनकी विभिन्न
पात्रों के प्रति संवेदनशीलता, भावात्मकता एवम् वैचारिक मूल्यवत्ता
आदि से अवगत होते हैं। जब नट और नटी यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि अब हम राम और सीता
की वैचारिक अवधारणाओं, भावात्मक दशाओं एवम् संवेदनशील मनःस्थितियों
को अपने अनुभावों के द्वारा पूर्ण कुशलता के साथ मंच पर प्रदर्शित कर सकते हैं,
तभी वह मंच पर अभिनय करने के लिए दर्शकों के सम्मुख आते हैं। मंच पर
नट और नटी के मन में यह विचार पूरी तरह छाया रहता है कि हम दर्शकों के समक्ष राम और
सीता का अभिनय कर रहे हैं। राम और सीता के अभिनय करने का उक्त विचार ही उन्हें एक ऐसी
भाव-दशा में ले जाता है, जिसके कारण वह राम और सीता की भावात्मकता,
संवेदनशीलता को जीवंत रूप प्रदान करने में सक्षम हो पाते हैं। दूसरी
तरफ यदि मंच के इर्द-गिर्द बैठे हुए दर्शकों को लें तो उनके मन में भी किसी प्रकार
की भावदशा का निर्माण इस कारण होता है क्योंकि उनमें पूर्व निर्धारित यह वैचारिक अवधारणाएँ
रहती हैं कि रामायण एक पवित्र और धर्मिक ग्रन्थ है, जिसके पात्र राम और सीता
आदर्शवान, ईश्वरीय अंश, अलौकिक या दैवीय
शक्ति के प्रतीक हैं, जिनका यशस्वी रूप देखने, सुनने, पढ़ने से लोक-कल्याण हो जाता है या मानव को इस
जीवन-मरण की क्रिया से मोक्ष मिल जाता है। लोक-कल्याण और मोक्ष का विचार लेकर जब दर्शक
रामायण के पात्र राम और सीता का रूप [ नट और नटी में ] मंच पर देखते हैं तो वह नट और
नटी को राम और सीता का रूप मानकर चलते हैं। नट और नटी को राम और सीता मानने का विचार
ही सामाजिकों को एक निश्चित भावदशा में ले जाता है।
किसी भी सामाजिक
की नट और नटी के अभिनय के द्वारा बनी राम और सीता संबंधी विभिन्न भावदशाओं में से रति
जैसी भावददशा इस कारण नहीं बन पाती क्योंकि सामाजिक के अंदर राम और सीता के प्रति अनेक
धर्मिक संस्कार होते हैं जिनके कारण वह सीता और राम के प्रति रति जैसे विचार लाते ही
अपराधबोध से ग्रस्त हो उठता है। रति के विचार
से जन्य यह अपराधबोध , राम और सीता को पवित्र पात्र मानने
के कारण उत्पन्न होता है।
इस प्रकार
हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि नट और नटी में चूंकि राम और सीता की समस्त जीवन-क्रियाओं
को अभिनीत करने का विचार होता है, इसलिए वे रत्यादि
भावों को भी आसानी से उद्बुद्ध कर लेते हैं,
जबकि सामाजिक देवी-देवताओं के प्रति अपनी रति को पापमय विचारते हैं,
अतः अपराधबोध से ग्रस्त हो उठते
हैं।
लेकिन हमारे रसाचार्यों का आग्रह या दुराग्रह यह रहा
है कि उन्हें रसनिष्पत्ति की व्याख्या सिर्फ भावों के सहारे ही करनी है, इसी कारण भट्टनायक भी अपने रस-मत में भावकत्व, भोजकत्व
आदि के द्वारा रति, शोक, हास आदि भावों
का साधारणीकरण कर डालते हैं। लेकिन इसके मूल में व्यक्ति या सामाजिक के विचार ही कार्य
करते हैं, वे इस तथ्य की ओर संकेत करने या सुलझाने के बजाय केवल
भावों के माध्यम से सामाजिक को ममत्व-परत्व के बंधनों से अवैज्ञानिक तरीके से मुक्त
करा देते हैं, जबकि ऐसा कदापि नहीं होता और न काव्य के आस्वादन
के कारण सामाजिक में रजोगुण, तमोगुण के नाश तथा सतोगुण के उद्रेक
से रसानुभूति होती है।
भट्टनायक की साधारणीकरण सम्बन्धी व्याख्या के मूल में
यदि हम यह जानने का प्रयास करें और उदाहरणस्वरूप रामलीला या कृष्णलील का रसास्वादन
करते हुए दर्शकों या श्रोताओं को लें तो जो दर्शक या श्रोता राम और कृष्ण को [ पारिवारिक
एवं सांप्रदायिक वातावरण के कारण ] बचपन से ही अपना ईश्वर या देवता तय कर चुके होते
हैं, ऐसे दर्शकों या श्रोताओं को कुरान, बाइबिल आदि के कथावाचन में बिठा दिया जाये, तो इनके मन
में किसी भी प्रकार से ऐसे भक्ति रस की निष्पत्ति नहीं होगी, जैसी कि राम-कृष्णादि के चरित्र के कथावाचन द्वारा होती है। ठीक यही स्थिति
कुरान, बाइबिल आदि के संप्रदायवादियों पर भी लागू होगी। अक्सर
यह भी देखा गया है कि जो भक्त लोग कृष्ण लीलादि में राधा और कृष्ण की रति, नृत्यादि को देखकर आत्मविभोर हो उठते हैं, उन परंपरावादी
भक्त लोगों को इसी प्रकार के नृत्य से परिपूर्ण यदि किसी कथित अधार्मिक फिल्म या नाटक
में बिठा दिया जाये तो ऐसे भक्त लोगों में नायक-नायिका के प्रति भक्ति या रति उद्बुद्ध
होने के स्थान पर जुगुप्सा जागृत हो जाती है।
इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि भावों का साधारणीकरण किसी स्थिति में होता भी है
तो उसके मूल में सामाजिकों की वैचारिक अवधारणाएँ ही कार्य करती हैं।
जहाँ तक किसी
काव्य-सामग्री के आस्वादन के समय सामाजिक का ममत्व और परत्व की भावना से परे हो जाना
होता है तो यह तथ्य भी एकदम निराधार और अतार्किक है। यदि ऐसा ही होता तो रामलीला का
आस्वादन करने वाले सामाजिक राम-रावण आदि में कोई अंतर नहीं कर पाते। वास्तविकता तो
यह है कि राम के प्रति अपनत्व और रावण के प्रति शत्रुता का विचार ही किसी सामाजिक में
विभिन्न प्रकार के भावों का निर्माण कर पाता है। यदि यह परत्व-ममत्व के विचार अपनी
भूमिका न निभाएँ तो कोई भी सामाजिक राम के प्रति सतोगुण और रावण के प्रति तमोगुण से
ओतप्रोत न हो। कहने का अर्थ यह है कि किसी भी सामाजिक के मन में किसी भी काव्य-सामग्री
को जिस प्रकार में समझने, परखने और देखने की वृत्ति होती
है, उसके मन में उसी प्रकार के भाव उद्बुद्ध होते हैं। इसलिए
अभिनव गुप्त भी भावों की व्याख्या करने में पूर्व रसाचार्यों की तरह असमर्थ जान पड़ते
है। क्योंकि किसी भी सामाजिक के मन में स्थायित्व भावों का नहीं,
विचारों का ही होता है। सामाजिक के मन में
स्थिति स्थायी विचारों को जब कोई सामग्री उद्दीप्त करती है तो सामाजिक काव्य-सामग्री
के उद्दीपन के प्रति विभिन्न तरीके से विचारना प्रारंभ कर देता है। सामाजिक का उस काव्य-सामग्री
के उद्दीपन पक्ष के प्रति विचारना ही, उसके मन में विभिन्न प्रकार
के भावों को उद्बुद्ध करने में सहायक होता
है। विभिन्न भावों में उद्बुद्ध होने पर,
जो भाव स्थायी भाव बनता है, वह सामाजिक की उस वैचारिक
प्रक्रिया का अंग होता है, जो काव्य-सामग्री के उद्दीपन पक्ष
का सबसे महत्वपूर्ण व सबल अंग होती है। उदाहरणस्वरूप-भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के
दौरान रामप्रसाद बिस्मिल, अशपफाक उल्ला खां, भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी यह विचार कर चुके थे या ये कहें कि यह निर्णय ले
चुके थे कि आजादी हमें वीरतापूर्ण कार्य, ओजपूर्ण साहित्य के
द्वारा ही मिल सकती है। इस कारण क्रांतिकारियों की मार्क्स , लेनिन, मोपासां के साहित्य को पढ़कर जिस प्रकार की भावना
बनती थी, उसका रसात्मक आकलन उनके कार्य और उनके द्वारा रचित साहित्य
को पढ़कर आसानी से किया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार वर्तमान संदर्भों को किसी सामाजिक
के सामने साफ-साफ और चुनौतीपूर्ण तरीकों से प्रस्तुत करने वाली आज की काव्य-सामग्री
उसी सामाजिक को किसी संवेदनात्मक भावदशा में ले जा सकती है जो यह विचारता या अनुभव
करता है कि वर्तमान व्यवस्था में कोई सड़ांध है, जिसे दूर किया
जाना आवश्यक है।
इस विचारधरा के विपरीत यदि हम ऐसे सामाजिक को लें जो
एय्यासी को ही जीवन मानता है, ऐसे सामाजिक के मन में यथार्थवादी या सत्योन्मुखी काव्य-सामग्री के प्रति किसी
भी प्रकार की संवेदनात्मक भावदशा नहीं बन सकती। उक्त प्रकार का सामाजिक जब किसी नायक-नायिका
के मिलन, चुंबन, विहँसन से ओतप्रोत काव्य-सामग्री
का आस्वादन करेगा तो उसके मन में तुरंत स्थायी भाव रति जागृत हो उठेगा।
इस प्रकार
तर्कपूर्ण तरीके से यह बात भी प्रमाणिक रूप से कही जा सकती है कि किसी भी सामाजिक में
कथित सहृदयता सिर्फ उसकी वैचारिकता ही है।
----------------------------------------------------
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
No comments:
Post a Comment