Saturday, April 9, 2016

रस का सम्बन्ध विचार से +रमेशराज




रस का सम्बन्ध विचार से

+रमेशराज
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किसी भी प्राणी के लिए किसी भी प्रकार के उद्दीपक [स्वाद, ध्वनि, गंध, स्पर्श, दृश्य] के प्रति मानसिकक्रिया का प्रथमचरण संवेदना अर्थात् उद्दीपक की तीव्रता, स्वरूप आदि के समान वेदन [ज्ञान] की स्थिति होती है। जब तक प्राणी इस ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण अर्थात् उसे कोई अर्थ नहीं दे पाता, तब तक उस प्राणी के अंदर एक ऐसी स्थिति बनी रहती है, जिसे किसी भी प्रकार स्पष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन जब प्राणी उस उद्दीपक के प्रति जन्मी संवेदना को अर्थ प्रदान कर वैचारिक रूप से ऊर्जस्व होता है तो उसके मन में एक भावदशा उद्बुद्ध  होती है, उसी का प्रकटीकरण अनुभावों से होता है।
संवेदना के बिना किसी भी प्राणी में भावदशा का निर्माण संभव नहीं है। संवेदना का मूल स्त्रोत हमारी इंद्रियाँ हैं, जिनके द्वारा प्राप्त ज्ञान को मानव अपने मस्तिष्क में स्मृति-चिन्हों के रूप में एकत्रित करता रहता है। वस्तुतः यही ज्ञान मनुष्य के अनुभव, अनुभूति और रस आचार्यों द्वारा बताए गए ‘स्थायी भाव’ का विषय बनता है।
    इंद्रियबोध से लेकर अनुभाव, अनुभव और अनुभूति की इस जटिल प्रक्रिया में मनुष्य अपनी चिंतन दृष्टि के सहारे जिस प्रकार के निर्णय लेता है, उसमें उसी प्रकार के भाव जागृत हो जाते हैं। इन भावों की पहचान हम अनुभावों के सहारे करते हैं। प्रेम, हास, उत्साह, क्रोध, भय, घृणा आदि के निर्माण की प्रक्रिया हमारी निर्णय क्षमताओं के अंतर्गत ही देखी जा सकती है। मनुष्य का समूचा मनोव्यवहार इतना जटिल है कि हम किसी भी उद्दीपक को दुःखात्मक या सुखात्मक अनुभूतियों का विषय गणित के नियमों की तरह नहीं बना सकते। उद्दीपक के रूप में कोई भी सामग्री, दुःखात्मक या सुखात्मक, हमारे निर्णयों, वैचारिक अवधारणाओं के अनुसार होती है। अर्थात् अपने इंद्रियबोध के माध्यम से हम जिस प्रकार के निर्णय लेते हैं, हमारे मन में उसी प्रकार के भाव जागृत हो जाते हैं। भिखारी को हाथ पसारे हुए देखकर एक व्यक्ति में करुणा और दया उद्बुद्ध हो सकती है। वह उसकी सहायता के लिए कुछ पैसे उसके कटोरे में कुछ पैसे डाल सकता है, जबकि दूसरे व्यक्ति में भिखारी के प्रति घृणा और क्रोध के भाव जागृत हो सकते हैं, वह उसको समाज का कोढ़ मानकर गालियाँ दे सकता है। इसके विपरीत तीसरे व्यक्ति के मन में भिखारी के कटोरे में पड़े पैसों को देखकर लालच पनप सकता है। वह भिखारी से पैसों को छीनने का विचार बना सकता है। भिखारी के प्रति पनपी उक्त प्रकार की विभिन्न भावदशाएँ, वस्तुतः मनुष्य के उन वैचारिक निर्णयों की देन है, जो संस्कारित मूल्यों के कारण बनते हैं।
    एक शोषक के मन में शोषित व्यक्ति की दयनीय दशा, करुणा के संवेगों का सचार इसलिए नहीं कर पाती, क्योंकि उसके संस्कार शोषक विचारधाराओं के पोषक होते हैं, जबकि एक मानवीयदृष्टि से युक्त लेखक या व्यक्ति शोषितों की दयनीय, निर्बल और असहाय दशा देखकर करुणा से द्रवीभूत हो उठता है।
    किसी भी व्यक्ति के लिए प्रेम जैसी सुखात्मक अनुभूति, आवश्यक नहीं है कि उस व्यक्ति को सुखात्मक अनुभूति की ओर ही ले जाये और उसमें हर स्थिति में कथित रति ही जागृत हो, जिसका परिपाक शृंगार-रस  के रूप दिखायी दे। सच तो यह है कि हर सामाजिक अपनी अवधारणाओं, मान्यताओं के अनुसार ही विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रेम-तत्वों का निर्धारण करता है और उक्त प्रेम तत्व को अपनी मान्यताओं के आधार पर अनुभाव में प्रकट करता है। हर नारी को देखकर पुरुष में एक ही प्रकार की रसदशा जागृत नहीं हो जाती। माँ, बहिन, पत्नी, प्रेमिका आदि के प्रति प्रकट किया गया प्रेम, मानव के संस्कारित वैचारिक मूल्यों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के भावों में उद्बुद्ध होता है।
    कविता चूंकि समाज द्वारा समाज के लिए लिखी गई रागात्मक संबंधों की वैचारिक प्रस्तुति है, अतः उस पर सामाजिक मान्यताओं, परिस्थितियों, आस्थाओं, संस्कारों का प्रभाव न पड़े, ऐसा संभव ही नहीं। भक्तिकालीन कवि गोस्वामी तुलसीदास यदि नारी की संवेदनशीलता को एक ओर रख, उसे प्रताड़ना की अधीकारिणी बना डालते हैं तो रीतिकालीन कवि उसी नारी को एक भोग-विलास की वस्तु मानकर उसके साथ रास रचाते हुए कथित आनंद अवस्था को प्राप्त होते हैं, जबकि मैथिलीशरण गुप्त उसी नारी को अबला, प्रताडि़त, असहाय और दलित अनुभव करते हैं। नारी के प्रति भक्तिकाल में उद्बुद्ध क्रोध करुणा और दया के भाव कवियों की मान्यताओं, वैचारिक अवधारणाओं के कारण ही काव्य में भिन्न-भिन्न रसों का विषय बने हैं।
    वस्तुतः मनुष्य की वृत्तियाँ, प्रवृत्तियाँ उसकी वैचारिक दृष्टि के कारण जन्म लेती हैं, विकसित होती हैं तथा इन्हीं वृत्तियों के अनुसार व्यक्ति में घृणा, वात्सल्य, करुणा, दया, शृंगार आदि की निष्पत्ति होती है। व्यक्ति की इन विचारधाराओं को समझे बिना किसी भी प्रकार की रागात्मकवृत्ति के विश्वव्यापी प्रसार, विस्तार की कल्पना नहीं की जा सकती। काव्य योग की साधना , सच्चे कवि की वाणी तभी बन सकती है जबकि वह कविता जैसे मानवीय मूल्य को चिंतन-मनन की सत्योन्मुखी दृष्टि के साथ प्रस्तुत करे। अगर वह ऐसा करता है तो उसे विधि के बनाए जीवों के प्रति तरह-तरह की आशंकाएँ उत्पन्न होने लगेंगी और वह रीतिकालीन कवि ठाकुर की मान्यता- ‘विधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ, खेलत फिरत तिन्हें खेलन फिरन देव’, को जब अनुभव और तर्क की कसोटी पर परखेगा तो वह अपनी मानवीय संवेदनशीलता के कारण यह कदापि नहीं चाहेगा कि जो जीव जहाँ खेल रहा है, वहीं उसे खेलने दिया जाये। वह बच्चे को आग के, मेमने को शे’र के, शोषित को शोषक के चंगुल से बचाने का प्रयास करेगा। यही बचाने का प्रयास जब शेष प्रकृति के प्राणियों के सुख सौंदर्य के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करेगा तो रक्षा, करुणा, दया, विरोध और विद्रोह जैसी रसात्मक अवस्थाओं में उद्बुद्ध हो उठेगा। 
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

विचार और भाव-1 +रमेशराज





विचार और भाव-1  

+रमेशराज
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भाव का सम्पूर्ण क्षेत्र विचार का क्षेत्र है। जो काव्य-मर्मज्ञ काव्य से विचार-सत्ता के अस्तित्व को नकारने की कोशिश करते हैं और उसे सिर्फ भावक्षेत्र की सीमा में बाँध लेना चाहते हैं, ऐसे विद्वजनों को सोचना  चाहिए कि विचार के बिना किसी भी भाव का उद्बुद्ध  होना संभव नहीं है।
    काव्य के बारे में इतना तो तय है कि किसी भी सामाजिक में रसनिष्पत्ति विभाव, संचारी भाव, अनुभाव और स्थायी भाव के संयोग के कारण ही होती है, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि जब तक सामाजिक, विभाव की क्रियाओं, अनुक्रियाओं, भावों, अनुभावों अर्थात् उसकी समस्त उद्दीपन प्रक्रिया को अर्थ देकर, एक विशेष निर्णय की स्थिति में नहीं पहुँच जाता, तब तक उसके मन में किसी भी प्रकार के भाव का निर्माण नहीं होता।
    रसाचार्य भट्लोलट्ट व शंकुक अपने रसोत्पत्तिवाद में जब नटी और नट में रस की उत्पत्ति का कारण राम और सीता का अनुकरण मानते हैं, तब अनुकरण का अर्थ क्या है? इस प्रश्न को वैज्ञानिक तरीके से सुलझाया जाना आवश्यक नहीं? अनुकरण का  सीधा अर्थ यह निकलता है कि नट और नटी मंच पर जाने या अभिनय करने से पूर्व यह विचार कर लेते हैं कि हमें मंच पर राम और सीता का अभिनय करना है। इसके लिए वह रामकथा का अध्ययन कर, राम और सीता की चारित्रिक विशेषताओं, उनकी विभिन्न पात्रों के प्रति संवेदनशीलता, भावात्मकता एवम् वैचारिक मूल्यवत्ता आदि से अवगत होते हैं। जब नट और नटी यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि अब हम राम और सीता की वैचारिक अवधारणाओं, भावात्मक दशाओं एवम् संवेदनशील मनःस्थितियों को अपने अनुभावों के द्वारा पूर्ण कुशलता के साथ मंच पर प्रदर्शित कर सकते हैं, तभी वह मंच पर अभिनय करने के लिए दर्शकों के सम्मुख आते हैं। मंच पर नट और नटी के मन में यह विचार पूरी तरह छाया रहता है कि हम दर्शकों के समक्ष राम और सीता का अभिनय कर रहे हैं। राम और सीता के अभिनय करने का उक्त विचार ही उन्हें एक ऐसी भाव-दशा में ले जाता है, जिसके कारण वह राम और सीता की भावात्मकता, संवेदनशीलता को जीवंत रूप प्रदान करने में सक्षम हो पाते हैं। दूसरी तरफ यदि मंच के इर्द-गिर्द बैठे हुए दर्शकों को लें तो उनके मन में भी किसी प्रकार की भावदशा का निर्माण इस कारण होता है क्योंकि उनमें पूर्व निर्धारित यह वैचारिक अवधारणाएँ रहती हैं कि रामायण एक पवित्र और धर्मिक ग्रन्थ  है, जिसके पात्र राम और सीता आदर्शवान, ईश्वरीय अंश, अलौकिक या दैवीय शक्ति के प्रतीक हैं, जिनका यशस्वी रूप देखने, सुनने, पढ़ने से लोक-कल्याण हो जाता है या मानव को इस जीवन-मरण की क्रिया से मोक्ष मिल जाता है। लोक-कल्याण और मोक्ष का विचार लेकर जब दर्शक रामायण के पात्र राम और सीता का रूप [ नट और नटी में ] मंच पर देखते हैं तो वह नट और नटी को राम और सीता का रूप मानकर चलते हैं। नट और नटी को राम और सीता मानने का विचार ही सामाजिकों को एक निश्चित भावदशा में ले जाता है।
    किसी भी सामाजिक की नट और नटी के अभिनय के द्वारा बनी राम और सीता संबंधी विभिन्न भावदशाओं में से रति जैसी भावददशा इस कारण नहीं बन पाती क्योंकि सामाजिक के अंदर राम और सीता के प्रति अनेक धर्मिक संस्कार होते हैं जिनके कारण वह सीता और राम के प्रति रति जैसे विचार लाते ही अपराधबोध  से ग्रस्त हो उठता है। रति के विचार से जन्य यह अपराधबोध , राम और सीता को पवित्र पात्र मानने के कारण उत्पन्न होता है।
    इस प्रकार हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि नट और नटी में चूंकि राम और सीता की समस्त जीवन-क्रियाओं को अभिनीत करने का विचार होता है, इसलिए वे रत्यादि भावों को भी आसानी से उद्बुद्ध  कर लेते हैं, जबकि सामाजिक देवी-देवताओं के प्रति अपनी रति को पापमय विचारते हैं, अतः अपराधबोध  से ग्रस्त हो उठते हैं।
लेकिन हमारे रसाचार्यों का आग्रह या दुराग्रह यह रहा है कि उन्हें रसनिष्पत्ति की व्याख्या सिर्फ भावों के सहारे ही करनी है, इसी कारण भट्टनायक भी अपने रस-मत में भावकत्व, भोजकत्व आदि के द्वारा रति, शोक, हास आदि भावों का साधारणीकरण कर डालते हैं। लेकिन इसके मूल में व्यक्ति या सामाजिक के विचार ही कार्य करते हैं, वे इस तथ्य की ओर संकेत करने या सुलझाने के बजाय केवल भावों के माध्यम से सामाजिक को ममत्व-परत्व के बंधनों से अवैज्ञानिक तरीके से मुक्त करा देते हैं, जबकि ऐसा कदापि नहीं होता और न काव्य के आस्वादन के कारण सामाजिक में रजोगुण, तमोगुण के नाश तथा सतोगुण के उद्रेक से रसानुभूति होती है।
भट्टनायक की साधारणीकरण सम्बन्धी व्याख्या के मूल में यदि हम यह जानने का प्रयास करें और उदाहरणस्वरूप रामलीला या कृष्णलील का रसास्वादन करते हुए दर्शकों या श्रोताओं को लें तो जो दर्शक या श्रोता राम और कृष्ण को [ पारिवारिक एवं सांप्रदायिक वातावरण के कारण ] बचपन से ही अपना ईश्वर या देवता तय कर चुके होते हैं, ऐसे दर्शकों या श्रोताओं को कुरान, बाइबिल आदि के कथावाचन में बिठा दिया जाये, तो इनके मन में किसी भी प्रकार से ऐसे भक्ति रस की निष्पत्ति नहीं होगी, जैसी कि राम-कृष्णादि के चरित्र के कथावाचन द्वारा होती है। ठीक यही स्थिति कुरान, बाइबिल आदि के संप्रदायवादियों पर भी लागू होगी। अक्सर यह भी देखा गया है कि जो भक्त लोग कृष्ण लीलादि में राधा और कृष्ण की रति, नृत्यादि को देखकर आत्मविभोर हो उठते हैं, उन परंपरावादी भक्त लोगों को इसी प्रकार के नृत्य से परिपूर्ण यदि किसी कथित अधार्मिक फिल्म या नाटक में बिठा दिया जाये तो ऐसे भक्त लोगों में नायक-नायिका के प्रति भक्ति या रति उद्बुद्ध  होने के स्थान पर जुगुप्सा जागृत हो जाती है। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि भावों का साधारणीकरण किसी स्थिति में होता भी है तो उसके मूल में सामाजिकों की वैचारिक अवधारणाएँ ही कार्य करती हैं।
    जहाँ तक किसी काव्य-सामग्री के आस्वादन के समय सामाजिक का ममत्व और परत्व की भावना से परे हो जाना होता है तो यह तथ्य भी एकदम निराधार और अतार्किक है। यदि ऐसा ही होता तो रामलीला का आस्वादन करने वाले सामाजिक राम-रावण आदि में कोई अंतर नहीं कर पाते। वास्तविकता तो यह है कि राम के प्रति अपनत्व और रावण के प्रति शत्रुता का विचार ही किसी सामाजिक में विभिन्न प्रकार के भावों का निर्माण कर पाता है। यदि यह परत्व-ममत्व के विचार अपनी भूमिका न निभाएँ तो कोई भी सामाजिक राम के प्रति सतोगुण और रावण के प्रति तमोगुण से ओतप्रोत न हो। कहने का अर्थ यह है कि किसी भी सामाजिक के मन में किसी भी काव्य-सामग्री को जिस प्रकार में समझने, परखने और देखने की वृत्ति होती है, उसके मन में उसी प्रकार के भाव उद्बुद्ध होते हैं। इसलिए अभिनव गुप्त भी भावों की व्याख्या करने में पूर्व रसाचार्यों की तरह असमर्थ जान पड़ते है। क्योंकि किसी भी सामाजिक के मन में स्थायित्व भावों का नहीं, विचारों का ही होता है। सामाजिक के मन में स्थिति स्थायी विचारों को जब कोई सामग्री उद्दीप्त करती है तो सामाजिक काव्य-सामग्री के उद्दीपन के प्रति विभिन्न तरीके से विचारना प्रारंभ कर देता है। सामाजिक का उस काव्य-सामग्री के उद्दीपन पक्ष के प्रति विचारना ही, उसके मन में विभिन्न प्रकार के भावों को उद्बुद्ध  करने में सहायक होता है। विभिन्न भावों में उद्बुद्ध  होने पर, जो भाव स्थायी भाव बनता है, वह सामाजिक की उस वैचारिक प्रक्रिया का अंग होता है, जो काव्य-सामग्री के उद्दीपन पक्ष का सबसे महत्वपूर्ण व सबल अंग होती है। उदाहरणस्वरूप-भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल, अशपफाक उल्ला खां, भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी यह विचार कर चुके थे या ये कहें कि यह निर्णय ले चुके थे कि आजादी हमें वीरतापूर्ण कार्य, ओजपूर्ण साहित्य के द्वारा ही मिल सकती है। इस कारण क्रांतिकारियों की मार्क्स , लेनिन, मोपासां के साहित्य को पढ़कर जिस प्रकार की भावना बनती थी, उसका रसात्मक आकलन उनके कार्य और उनके द्वारा रचित साहित्य को पढ़कर आसानी से किया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार वर्तमान संदर्भों को किसी सामाजिक के सामने साफ-साफ और चुनौतीपूर्ण तरीकों से प्रस्तुत करने वाली आज की काव्य-सामग्री उसी सामाजिक को किसी संवेदनात्मक भावदशा में ले जा सकती है जो यह विचारता या अनुभव करता है कि वर्तमान व्यवस्था में कोई सड़ांध है, जिसे दूर किया जाना आवश्यक है।
इस विचारधरा के विपरीत यदि हम ऐसे सामाजिक को लें जो एय्यासी  को ही जीवन मानता है, ऐसे सामाजिक के मन में यथार्थवादी या सत्योन्मुखी काव्य-सामग्री के प्रति किसी भी प्रकार की संवेदनात्मक भावदशा नहीं बन सकती। उक्त प्रकार का सामाजिक जब किसी नायक-नायिका के मिलन, चुंबन, विहँसन से ओतप्रोत काव्य-सामग्री का आस्वादन करेगा तो उसके मन में तुरंत स्थायी भाव रति जागृत हो उठेगा।
     इस प्रकार तर्कपूर्ण तरीके से यह बात भी प्रमाणिक रूप से कही जा सकती है कि किसी भी सामाजिक में कथित सहृदयता सिर्फ उसकी वैचारिकता ही है।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

विचार और भाव-2 +रमेशराज





विचार और भाव-2

+रमेशराज
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    रस की स्थापना के लिए रस-शास्त्रियों ने रस-सामग्री के रूप में जिस प्रकार भाव, विभाव, संचारी भाव और स्थायी भाव की चर्चा की है और इन भावों के माध्यम से जिस प्रकार से पाठक या श्रोता के कथित हृदय में रस-निष्पत्ति का एक सूत्र या सिद्धान्त गढ़ा है, उससे यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं होता कि आखिर पाठक या श्रोता की उक्त भावदशा किस प्रकार बनती है और इसके पीछे कौन-कौन से कारक अपनी भूमिका निभाते हैं? इन कारकों की क्रिया-प्रणाली किस प्रकार की है? बल्कि इस सारे झंझट से मुक्ति पाने के लिए पाठक या श्रोता में ‘हृदय-तत्व’ की स्थापना करके, यह सिद्ध कर डाला कि पाठक या श्रोता के हृदय में कुछ भाव या मनोविकार सुप्त-अवस्था में पड़े रहते हैं, जो काव्य के क्षेत्र में स्थायी भाव के नाम से जाने जाते हैं। इन रसाचार्यों ने यह समझाने की कोशिश नहीं की कि हृदय तो एक रक्त-संचार का साधनमात्र है, उसका मनुष्य के भावात्मक पक्ष के निर्माण से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं। हर प्रकार की भावात्मक प्रक्रिया का मूल आधर तो मानसिक-प्रक्रम है। मन के स्तर पर ही भावों की सुप्तावस्था या गतिशील अवस्था स्पष्ट की जा सकती है।
    पाठक, श्रोता या दर्शक की किसी भी काव्य-सामग्री के पठन-पाठन मंचन आदि के द्वारा सामाजिक में भावदशा बनने से पूर्व कई ऐसी मानसिक क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, जो काव्य तथा आश्रय की अर्थमीमांसा से आबद्ध  रहती हैं। रस-निष्पत्ति के लिए किसी भी पाठक या श्रोता के मन में एक वैचारिक प्रक्रिया का उद्भव होता है और यही वैचारिक प्रक्रिया अपने चरमोत्कर्ष पर एक विशेष प्रकार के भाव [ स्थायी भाव ] में बदल जाती है।
    स्थायी भाव के निर्माण में विभाव अपनी उद्दीप्त भूमिका का निर्वाह करता है। भरतमुनि के अनुसार-‘‘विभाव वाणी और अंगों के आश्रित अनेक अर्थों का विभावन या अनुभव कराते हैं-
वहवोर्था विभोव्यन्ते वागड.भिनयाश्रयाः।
अनेन यस्मात्तेनायं विभावभूति कथ्यते।।
    इसका अर्थ यह हुआ कि नायक और नायिका की वाणी और अंगों से आश्रय जो अर्थ ग्रहण करता है, वह अर्थ ही एक विशेष प्रकार के भाव [ स्थायी भाव ] को जन्म देता है। इस तरह नायक या नायिका की काव्य में वर्णित मनोदशाएँ, प्रवृत्तियाँ, अंग-संचालन की क्रियाएँ और उसके विभिन्न गुणादि आश्रय के मन में भावदशा के निर्माण का आधार बनते हैं। अर्थ यह कि विभाव के रूप में नायक-नायिका की उद्दीपन प्रणाली अर्थात् आलंबन का धर्म ही आश्रय के मन को उद्दीप्त करता है। आश्रय जब आलंबनधर्म को कोई विशेष अर्थ दे लेता है, वही अर्थ या निर्णय भावों का निर्माण करता है। अतः काव्य में वर्णित पात्र या विषय आलंबन जरूर बनते हैं, लेकिन उनकी उद्दीपनक्षमता ही आश्रय के मन को झकझोरती है और उसमें नए-नए रसों का निर्माण करती है। अतः विभाव को परंपरागत तरीके [आलंबनविभाव तथा उद्दीपनविभाव] में वर्गीकृत करने के बजाय आलंबनगत उद्दीपनविभाव तथा प्रकृतिगत उद्दीपनविभाव के रूप में वर्गीकृत किया जाना अधिक  वैज्ञानिक और तर्कसंगत रहेगा। बात को स्पष्ट करने के लिए यहाँ कुछ उदाहरण देना परमाश्यक है-
देख सखि अधरन की लाली।
मनि मरकत में सुभग कलेवर, ऐसे हैं वनमाली
मनौ प्रात की घटा साँवरी, तापर अरुण प्रकाश
ज्यों  दामिनि बिच चमक रहत है, फहरत पीर्त सुवास।’’
    इन पंक्तियों में आश्रय बनी गोपियों के लिए कृष्ण आलंबन जरूर हैं, लेकिन गोपियों के मन में स्थायी भाव रति जागृत करने में उस रूप के विशेष गुण-तत्त्व की भूमिका है, जिसे गोपियाँ श्रीकृष्ण के अधरों पर विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक बिंबों के माध्यम से अनुभव करती हैं। ठीक इसके विपरीत-
तुम्हरे अद्दत तीन तेरह यह देश दशा दरसावें
पै तुमको यदि जन्मधरे की, तब कहुं लाज न आवें।
आरत तुम्हें पुकारत हम सब, सुनत न त्रिभुवनराई
अँगुरी डारि कान में बैठे, धिक्  ऐसी निठुराई।
    इन पंक्तियों में आलंबन तो कृष्ण ही हैं, लेकिन उनके गुण-तत्त्वों की उद्दीपन-प्रक्रिया बदल जाने के कारण आश्रय में स्थायी भाव रति के स्थान पर, स्थायी भाव आक्रोश उद्बुद्ध हो उठा है। इसी स्थायी भाव आक्रोश की स्पष्ट झलक वर्तमान में इस प्रकार मिलती है-
ऊधौ वंशी राग-रस, नेह प्रेम सब व्यर्थ
अब तौ जानें श्याम बस, वोटों का व्यापार।
    उपरोक्त उदाहरणों के आधार पर यह प्रमाणित किया जा सकता है कि एक आश्रय आलंबन की विभिन्न प्रकार की उद्दीपन क्रियाओं से [मात्र आलंबन से नहीं] जिस प्रकार का अर्थ ग्रहण करता है और उन क्रियाओं के प्रति जिस प्रकार के अंतिम निर्णय लेता है, उसमें उसी प्रकार के स्थायी भाव निर्मित हो जाते हैं। स्थायी भावों की बनती और बिगड़ती स्थिति एक नायक की उन विभिन्न अवस्थाओं में देखी जा सकती है, जिनमें कभी वह क्रोध करता है, कभी शोकाकुल होता है, कभी लोक-कल्याण की बात सोचता है तो कभी उसका चरित्र लोकघाती चरित्र बनकर उभरता है। नायकों का इस प्रकार का चरित्र हमारे वर्तमान खंड-काव्यों, उपन्यासों, नाटकों आदि में सर्वत्र मौजूद है। जिसके अनुसार आस्वादकों की स्थायी भावों की जटिल प्रक्रिया को समझा जाना, विश्लेषित किया जाना एवं उसे रस की कोटि में रखना वैचारिक प्रक्रिया से जोड़े बिना संभव नहीं।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

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काव्य में सहृदयता +रमेशराज





काव्य में सहृदयता
   
+रमेशराज
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    किसी भी प्राणी की हृदय-सम्बन्धी क्रिया, उस प्राणी के शारीरिकश्रम एवं मानसिक संघर्षादि में हुए ऊर्जा के व्यय की पूर्ति करने हेतु, हृदय द्वारा शारीरिक अवयवों जैसे मष्तिष्क, हाथ-पैर आदि के लिए रक्त संचार की सुचारू व्यवस्था प्रदान करना है, ताकि शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ चुस्ती और तीव्रता के साथ होती रहें।
    भावात्मक या संवेगात्मक अवस्था में मनुष्य के शरीर एवं मानसिक अवयवों में जब उत्तेजना का जन्म होता है, तो इस स्थिति में लगातार ऊर्जा के व्यय से आने वाली शरीरांगों की शिथिलता, घबराहट, कंप, स्वेद आदि असामान्य लक्षणों को संतुलित करने के लिए हृदय को मस्तिष्क द्वारा प्राप्त आदेशों के अनुसार तेजी से रक्त-पूर्ति का कार्य करना पड़ता है, जिसे दिल के धड़कने के रूप में अनुभव किया जा सकता है। संवेगात्मक अवस्था समाप्त होने के उपरांत हृदय की धड़कनें पुनः सामान्य हो जाती हैं।
    चूंकि किसी भी व्यक्ति की इंद्रियों से प्राप्त ज्ञान के प्रति संवेदनाशीलता का सीधा  संबंध उसकी मानसिक क्रियाओं से होता है, जब यह मानसिक क्रियाएँ किसी भी वस्तु सामग्री को अर्थ प्रदान कर देती हैं, तब अपमान, प्रेम, करुणा, ईष्र्या, वात्सल्य, क्रोध, भय आदि के रूप में उत्पन्न ऊर्जा, अनुभावों में तब्दील हो जाती है। संवेदना में अनुभव तत्त्व जुड़ जाने के पश्चात् भाव के रूप में उद्बोधित यह ऊर्जा किस प्रकार अनुभावों में तब्दील होती है और इसका हृदय से क्या सम्बन्ध है? इसे समझाने के लिए एक उदाहरण देना आवश्यक है- जब तक बच्चे को यह अनुभव नहीं होता कि सामने से आता हुआ जानवर शेर है, वह उसका प्राणांत कर सकता है, तब तक उसके मन में भय के भाव जागृत हो ही नहीं सकते। बच्चे को ऐंद्रिक ज्ञान को आधार पर जब यह पता चल जाता है कि उसके सामने शेर खड़ा हुआ है और वह उस पर झपट सकता है तो उससे बचाव के लिए उसकी मानसिक क्रियाओं में तेजी आने लगती है। शेर के यकायक उपस्थित होने के कारण संवेग की अवस्था इतनी अप्रत्याशित होती है कि मस्तिष्क के तीव्रता से लगातार किए जाने वाले चिंतन से ढेर सारी ऊर्जा का यकायक व्यय हो जाता है। इस ऊर्जा-व्यय से उत्पन्न संकट की पूर्ति के लिए मस्तिष्क सुचारू रूप से कार्य करने हेतु अतिरिक्त ऊर्जा की माँग करता है। चूंकि ऊर्जा को प्राप्त करने का एकमात्र स्त्रोत रक्त ही होता है, अतः मस्तिष्क रक्तपूर्ति की माँग अविलंब और तेजी के साथ करने के लिये हृदय को संकेत भेजता है। परिणामस्वरूप हृदय की धड़कन में तेजी आ जाती है।
    हृदय के विभिन्न संवेगों की स्थिति में धड़कते हुए इस स्वरूप के आधार पर ही संभवतः हृदय को सबसे ज्यादा संवेदनशीलता, भावनात्मकता, सौंदर्यबोध और रसात्मकता का आधार माना गया। और कुल मिलाकर यह सिद्ध  कर डाला गया जैसे हर प्रकार के विभाव के प्रति संचारी, स्थायी भावादि की स्थिति हृदय में है, जबकि हृदय तो मात्र एक रक्त-संचार का माध्यम है। उसका संवेदना, भाव, स्थायी भाव आदि के निर्माण से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं।
    काव्य के क्षेत्र में हृदय-तत्त्व की स्थापना का यदि हम विवेचन करें तो इसका सीधा-सीधा कारण नायक-नायिका के मिलन, चुंबन, विहँसन के समय हृदय का तेजी के साथ धड़कना ही रहा है। जिसका सीधा-सीधा अर्थ हमारे रसमर्मज्ञों ने यह लगाया होगा कि मनुष्य की मूल संवेदना, भावात्मकता आदि का मूल आधार हृदय ही है। जबकि किसी भी प्रकार की संवेगावस्था में हृदय की धड़कनों में तेजी आ जाना एक स्वाभाविक एवं आवश्यक प्रक्रिया है।
    नायक और नायिका के कथित प्रेम-मिलन में हृदय इसलिए तेज गति से धड़कता है क्योंकि इस मिलन के मूल में जोश के साथ-साथ सामाजिक भय या व्यक्तिगत भय बना रहता है। लेकिन ज्यों-ज्यों  मिलन की क्रिया पुरानी पड़ती जाती है, उसमें सामाजिक एवं व्यक्तिगत भय का समावेश समाप्त होता चला जाता है। यही कारण है कि नायक और नायिका के मिलन के समय हृदय की धड़कनों में उतनी तेजी नहीं रह पाती, जितनी कि प्रथम मिलन के समय होती है।
    प्रेम के क्षेत्र में रति क्रियाओं के रूप में यदि हम पति-पत्नी के प्रथम मिलन को लें और उसकी तुलना अवैध रूप से मिलने वाले नायक-नायिका मिलन से करें तो पति-पत्नी की धड़कनों में आया ज्वार, नायक-नायिका की धड़कनों के ज्वार से काफी कम रहता है। इसका कारण पति-पत्नी में सामाजिक भय की समाप्ति तथा नायक-नायिका में सामाजिक भय का समावेश ही है।
    इस प्रकार यह भी निष्कर्ष निकलता है कि पाठक, दर्शक या श्रोता की काव्य के प्रति ‘सहृदयता’ भी उसकी धड़कनों के ज्वार-भाटे से नहीं समझी जा सकती। चूंकि काव्य का क्षेत्र मानव के मानसिक स्तर पर उद्बुद्ध  होने वाले भावों, स्थायी भावों का क्षेत्र है, अतः इस स्थिति में श्वेद, कम्प, स्तंभ जैसे सात्विक अनुभावों की तरह ‘सहृदयता’ एक आतंरिक सात्विक अनुभाव ही ठहरती है।
    कोई भी प्राणवान् मनुष्य जब तक कि उसमें प्राण हैं, वह अपनी जैविक क्रियाओं के फलस्वरूप सहृदय तो हर हालत में बना रहेगा। उसमें उद्दीपकों की तीव्रता, स्थिति-परिस्थिति, उसकी मानसिक क्रियाओं की संवेदनात्मक, भावनात्मक प्रस्तुति के रूप में धड़कनों के ज्वार-भाटाओं का प्रमाण भी देगी, लेकिन इन तथ्यों के बावजूद इतना तो माना ही जा सकता है कि काव्य का रसास्वादन एक सहृदय ही ले सकता है। ऐसे सामाजिक से भला क्या उम्मीद रखी जा सकती है, जिसका हृदयांत हो गया हो?
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

काव्यानुभव और काव्यानुभूति +रमेशराज





काव्यानुभव और काव्यानुभूति 

+रमेशराज
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    विभिन्न प्रकार की वस्तुओं या विषयों की उद्दीपन क्रियाओं का इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान-संवेदना, प्रत्यक्षीकरण एवं अर्थग्रहण की प्रक्रिया के उपरांत, एक अनुभव के रूप में, प्राणी मस्तिष्क में उपस्थित होता है। प्राणी विषयों या वस्तुओं की तीव्रता, गुण आदि को इस अनुभव के आधार पर चिंतन की एक निश्चित प्रक्रिया से गुजारते हुए कष्टदायक या कष्टनिवारक मूल्यों के रूप में अपनी चेतना का विषय बना लेता है। यह कष्टदायक या कष्टनिवारक निर्णय प्राणी मस्तिष्क में सुखात्मक या दुःखात्मक स्मृति-चिन्हों के रूप में संग्रहीत होना प्रारंभ कर देते हैं। यही सुखात्मक या दुःखात्मक स्मृति-चिन्ह विभिन्न प्रकार की वस्तुओं या विषयों के प्रति एक सामाजिक की ‘अनुभूति’ की विषय बनते हैं। इस तरह हम यह भी कह सकते हैं, किसी भी प्रकार के कष्टदायक या कष्टनिवारक ज्ञान के प्रति ‘अनुभूति’ सिर्फ दुःखात्मक या सुखात्मक दो ही प्रकार की होती है। इस दुखात्मक या सुखात्मक अनुभूति का आधार, चूंकि वह अनुभव होता है, जिसके कारण हमें, अपमान, घात, प्रतिघात, शोषण, यातना, त्रासदी, पीड़ा, प्रेम, सम्मान, व्यभिचार, बलात्कार, भ्रष्टाचार, संकट, समस्या, सुगंध, दुर्गंध, कटुता, शत्रुता, मित्रता, भाईचारा आदि का ज्ञान होता है, अतः जिन उद्दीपकों के प्रति हमारे अनुभव पीड़ादायक, असुरक्षात्मक होते हैं, उनकी दुःखानुभूति, हमारे मन में विरति ही पैदा नहीं करती, बल्कि, क्रोध, घृणा, विरोध, विद्रोह आदि से भी हमारे मानसिक-धरातल को सिक्त किए रहती है। जिन उद्दीपकों के द्वारा हमारे मन को शांति, सुरक्षा, प्रेम, स्नेह आदि की प्राप्ति होती है, उनके प्रति हमारे मन में रति, श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य आदि रसों की निष्पत्ति हुआ करती है। इस प्रकार अनुभव की सारी-की-सारी प्रक्रिया हमारे उन निर्णयों, विचारों आदि की प्रक्रिया है, जिसकी चिंतना सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूतियों के आधार पर हमें विभिन्न प्रकार के रसाद्बोधन की ओर ले जाती है।
    कृष्णादि के बालरूप का अनुभव [ उनके बाल्यावस्था के क्रियाकलापों के आधार पर ] जहाँ यशोदा मैया को वात्सल्य से सिक्त करता है, वहीं कृष्ण की यौवनावस्था राधादि को रिझाने, बाँसुरी बजाने, नृत्यादि करने के कारणद्ध शंृगार रस में डुबा डालती है। जबकि कृष्ण के अर्जुन को दिए गए उपदेशों का अनुभव, अर्जुन में वीरता, रौद्रता आदि का संचार करता है। जैसा कि हमने ‘विचार और भाव’ शीर्षक लेख में भी कहा है कि मात्र आलंबन के आधार पर किसी भी आश्रय में किसी भी प्रकार के भावों का निर्माण नहीं हो सकता, बल्कि भाव और रस का आधार तो आलंबन का धर्म अर्थात् उसके क्रियाकलाप ही बनते हैं। अतः आलंबन के रूप में कृष्ण के तीन अवस्थाओं में, विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप ही माँ में वात्सल्य, राधा में रति और अर्जुन में रौद्रता जागृत करने में सक्षम हुए हैं।
    पाठक या श्रोता के आस्वादन का विषय जब यही सामग्री बनती है तो वह भी अपने अनुभव से कृष्ण के क्रियाकलापों को वात्सल्यात्मक, शृंगारिक या रौद्रतापूर्ण बना डालता है। जिसके अंतर्गत शृंगार, वात्सल्य तो सुखानुभूति के विषय बन जाते हैं, लेकिन अर्जुन की रौद्रता सुखानुभूति का विषय तब बनती है, जबकि पाठक या श्रोता यह अनुभव करते हैं, इस रौद्रता के द्वारा ही अनीति, अत्याचार के पथ पर चलने वाले कौरव वंश का विनाश होगा।
    एक दूसरे उदाहरण के रूप में यदि हम राम और सीता के आलंबन धर्म अर्थात् उनके क्रियाकलापों को लें तो पाठक या श्रोता को इन क्रियाकलापों के अनुभव [ उनके दाम्पत्य जीवन के कारण ] वह शृंगारिक स्वरूप नहीं प्रदान कर पाते, जैसा अनुभव पाठक, कृष्ण-राधा की रति-क्रियाओं से प्राप्त कर शंृगार से सिक्त होते हैं, क्योंकि सीता के अनुभव हमारे मन में एक आदर्श पत्नी के रूप में उपस्थित रहते हैं, जबकि राधादि के अनुभव एक कामिनी, एक नायिका, एक प्रेमिका के रूप में मन पर आच्छादित होते हैं।
    अनुभवों की यह प्रक्रिया मात्र हमारे व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधरित नहीं होती, हमारे अनुभवों के मूल में लोकानुभव भी अपनी भूमिका निभाते हैं। लोकानुभवों को अपना विषय बनाकर निर्धन और निर्बलवर्ग अंधविश्वास के रूप में आज भी [ विभिन्न धर्मिक कथाओं के आधार पर ] यह अनुभव करता है कि उसके कष्टों, उसके दुःखातिरेक का निवारण सिर्फ ईश्वरीय कृपा द्वारा ही संभव है। वह सोचता है कि त्रासदी, यातना, दुराचार, अनैतिकपन और आदमी की आसुरी आदतों का विनाश करने एक-न एक दिन ईश्वर पृथ्वी पर अवतार लेगा और सारे दुष्टों को चुन-चुनकर मार डालेगा, जैसा कि उसने विगत युगों में किया है। देवी-देवताओं, ईश्वरीय शक्तियों के प्रति सामाजिकों के द्वापर, त्रेता, सतयुग आदि के वैदिक एवं पौराणिक अनुभव, उसे सुखानुभूति से सिक्त किए रहते हैं, इसी कारण उसके मन में अलौकिक शक्तियों के प्रति श्रद्धा और भक्ति आदि के रूप में सुखानुभूतियों का स्थायित्व बना रहता है।
    लेकिन मनुष्य जब यह अनुभव करता है कि अलौकिक शक्तियों के प्रति किया गया जाप, तप, कीर्तन, भजन आदि उसे किसी भी प्रकार यातना से मुक्त नहीं कर पाता, बल्कि धार्मिकता, अलौकिक शक्तियों के यशोगान से शोषण की तलवारें ज्यादा पैनी-धारदार होकर सबका गला काटती हैं तो उसके इस प्रकार शोषण से युक्त त्रासद अनुभव दुःखानुभूति को जन्म देते हैं। एक तरफ जहाँ यह दुःखानुभूति कबीर के साहित्य में विरोध और विद्रोह का रूप धारण करती है, वहीं मार्क्स जैसा साम्यवादी चिंतक धर्म को अफीम बताते हुए, ईश्वरीय शक्ति का निरंतर विरोध करता है। उसके मन में साम्राज्यवादी वर्ग के अत्याचारों से जन्य दलित वर्ग के हालात की दयनीय और कारुणिक दशा, शोषक वर्ग से लड़ने, संघर्ष करने और शोषणविहीन समाज की स्थापना करने हेतु अभिव्यक्ति विषय बनती है।
    ठीक इसी प्रकार नारी की दलित दशा का अनुभव जब द्विवेदी काल के रचनाकारों को दुःखानुभूति से सराबोर करता है तो वह नारी को दलित हालात से मुक्त कराने के लिए ऐसे साहित्य का सृजन करते हैं, जिसके माध्यम से सतीप्रथा, बालविवाह के निर्मूलन पर बल दिया जाता है।
    अनुभव और अनुभूति संबंधी उक्त व्याख्या से हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं-
1. अनुभव हमारी वह मानसिक क्रिया है जिसके अंतर्गत हम वह निर्णय लेते हैं कि इंद्रियों के सामने प्रस्तुत हुई सामग्री, हमारी चेतना पर किस प्रकार का प्रभाव छोड़ती है? स्पर्श इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान हमें जलन, घाव, पीड़ा, चोट आदि का अनुभव कराता है। श्रवण इंद्रियों द्वारा हम अपशब्द, अपमान, कटुवचन, मधुर वचन, नेह, स्नेह, प्रेम, तिरस्कार आदि का अनुभव करते हैं। दृष्टि इंद्रियाँ हमें प्रकाश, अंध्कार, प्राणियों, पौधें की दृश्यात्मक उपस्थिति का अनुभव कराती हैं। स्वादेन्द्रियों द्वारा कड़वे, मीठे, खट्टे, चरपरे, चटपटे स्वादों का अनुभव होता है। घ्राणेन्द्रियाँ सुगंध, दंर्गंध आदि का अनुभव कराती हैं।
2. वस्तुधर्म या आलंबनधर्म का अनुभव जब सामाजिक को किसी प्रकार की सुरक्षा या संतुष्टि प्रदान करता है तो इन अनुभवों से प्राप्त सुखानुभूति तत्काल या कुछ समय पश्चात् उन वस्तुओं के धर्म या क्रियाकलाप में रुचि लेने या उनमें रमणने के लिए प्रेरित करती है, ऐसी वस्तुएँ जो हमारे मन में किसी प्रकार की रति जागृत करती हैं, दरअसल, इसके मूल में उन वस्तुओं का वह धर्म ही होता है, जिनके आधार पर हम उन्हें मित्र की संज्ञा प्रदान करते हैं।
    लेकिन जिन वस्तुओं का अनुभव असुरक्षात्मक, कष्ट-पीड़ादायक एवं शत्रुतापूर्ण होता है, स्मृति-चिन्हों के रूप में मस्तिष्क में संगृहीत हुई उनकी दुःखानुभूति, उन वस्तुओं के प्रति मनुष्य के मन में तब तक रौद्रता, भयावहता, विरोध, विद्रोह आदि का संचार किए रहती है, जब तक कि मनुष्य उन वस्तुओं को शत्रु-रूप में मानता रहता है।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630       

   

काव्य में भाव और ऊर्जा +रमेशराज





काव्य में भाव और ऊर्जा
   
+रमेशराज
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    पाठक, श्रोता या दर्शक जब किसी काव्य-सामग्री का आस्वादन करता है तो उस सामग्री के रसात्मक प्रभाव, आस्वादक के अनुभावों [ स्वेद, स्तंभ, अश्रु, रोमांच, स्वरभंग आदि ] में स्पष्टतः देखे या अनुभव किए जा सकते हैं। सवाल यह है कि इस प्रकार के अनुभावों के प्रगटीकरण के पीछे क्या किसी प्रकार की कोई ऊर्जा कार्य करती है?
    ऊर्जा के बारे में वैज्ञानिकों का मत  है-‘‘जिस कारण से किसी वस्तु में कार्य करने की क्षमता रहती है, उसे ऊर्जा कहते हैं।“ अर्थ यह कि वस्तु या व्यक्ति में निहित वह क्षमता ऊर्जा है जो उससे विभिन्न प्रकार के कार्य संपन्न कराती है।
    काव्य के संदर्भ में वैज्ञानिकों के ऊर्जा संबंधी मत को लागू करते हुए सोचने की बात यह है कि क्या किसी आस्वादन सामग्री के आस्वादन से आश्रयों के मन में जागृत भाव, संचारीभाव, स्थायीभावादि किसी प्रकार की ऊर्जा के द्योतक होते हैं? जो कि आश्रय के अनुभावों से शक्ति के रूप में पहचाने जा सकते हैं?
रसाचार्यों के अनुसार-‘‘भावों का उद्गम यद्यपि आश्रय में होता है, पर उनका संबंध किसी वाह्य वस्तु, विषय या पात्र से होता है। भावों का उद्गम जिस मुख्य पात्र, वस्तु या विषय से होता है, वह काव्य में आलंबन कहा जाता है।’’
अर्थ यह कि भावों के निर्माण में मुख्य भूमिका आलंबन निभाते हैं। अब प्रश्न यह है कि क्या भाव किसी प्रकार की ऊर्जा के स्वरूप हैं?
    काव्य के पात्रों को लें- यह पात्र अपनी-अपनी स्थितियों में कभी आश्रय होते हैं तो कभी आलंबन। आलंबनों के रूप में पात्रों का धर्म अर्थात् उनका व्यवहार, हाव-भाव, चेष्टाएँ, विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ, उनके मन में उद्बुद्ध भावों द्वारा ही सम्पन्न होती हैं। जैसे यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को अपशब्द या गाली दे रहा है, उसे जान से मारने की बात कह रहा है, उसका स्वर-भंग हो रहा है तो इसका कारण उसके मन में उद्बोधित  क्रोध है। उद्बोधित  क्रोध का कारण निश्चित रूप से दूसरे व्यक्ति का वह व्यवहार रहा है, जिससे इस व्यक्ति को मानसिक या शारीरिक पीड़ा हुई। बहरहाल इस व्यक्ति की सारी-की-सारी क्रियाशीलता या कार्य करने की क्षमता का मूल आधार क्रोध है। इसलिए यह बात सप्रमाण कही जा सकती है कि भावों में ही किसी भी कार्य को करने या कराने की क्षमता होती है, अतः भाव एक प्रकार की ऊर्जा ही होते हैं। बात को स्पष्ट करने के लिए यहाँ एक उदाहरण आवश्यक है-
अन्याय के शैतान का सिर धड़ से उड़ा दो
हम जुल्म के खिलाफ हैं, दुनिया को बता दो।
    इन पंक्तियों में आश्रय के रूप में कवि के मन में उत्पन्न विद्रोह का वह भाव है, जिसकी क्षमता के बल पर कवि अन्यायियों, अत्याचारियों के सर धड़ से उड़ाने की बात कह रहा है। विरोध की क्षमता उसे ‘जुल्म के खिलाफ’ दुनिया-भर को यह बताने के लिए प्रेरित कर रही है कि अब अत्याचार को बिल्कुल सहन नहीं किया जाएगा। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कवि के मन में विद्रोह का भाव यहाँ ऊर्जा के रूप में ही कार्य कर रहा है। कवि के मन में यह ऊर्जा, आलंबन स्वरूप वर्तमान आतातायी व्यवस्था के कारण उत्पन्न हुई है। इसका सीधा अर्थ यह है कि एक आश्रय के मन में स्थित ऊर्जा को जब किसी आलंबन द्वारा बल मिल जाता है तो वह गतिज ऊर्जा में तब्दील हो जाता है, जिसे काव्य के क्षेत्र में भाव कहा जाता है।
भाव अर्थात् ऊर्जा के विभिन्न स्वरूप
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1.ध्वन्यात्मक ऊर्जा
    विभाव की उद्दीपन क्रिया के द्वारा जब आश्रय सुखानुभूति से सिक्त होता है तो उसमें रति, उत्साह, हास, स्नेह, प्रेम, हर्ष, मोह, गर्व, आशा, संतोष, धैर्य आदि भावों के रूप में ध्वन्यात्मक ऊर्जा का संचार होता है, जिसके कारण आश्रय का स्पर्श, चुंबन, आलिंगन, हँसना, मीठी-मीठी बातें करना, वाणी का गद्गद् हो जाना, रोमांचित हो उठना जैसे अनुभावों के रूप में अनेक क्रियाएँ प्रारंभ हो जाती है। उदाहरणस्वरूप-
जतीले जाति के सारे प्रबंधें को टटोलेंगे
जनों को सत्य सत्ता की तुला से ठीक तोलेंगे।
बनेंगे न्याय के नेगी, खलों की पोल खोलेंगे
करेंगे प्रेम की पूजा रसीले बोल बोलेंगे।
    उक्त पंक्तियों में जन के प्रति बरते जा रहे सत्ताई भेदभाव के कारण आश्रय [ कवि ] के मन में उत्साह का भाव जागृत हो उठा है और यही वह ध्वन्यात्मक ऊर्जा है जिसके कारण कवि जतीले जाति के प्रबंधों को टटोलते हुए, जनों को सच्चा न्याय दिलाने की कोशिश करता है, खलों की पोल खोलने के लिए अपनी वाणी में ओज पैदा करता है तथा पूरे समाज को प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिए रसीले बोल अर्थात् वाणी में मृदुलता लाता है।

2.ऋणात्मक ऊर्जा
    आलंबन के अनाचार, अत्याचार आदि से जब आश्रय के मन में दुःखानुभूति जागृत होती है तो उसका मन शोक, क्रोध, भय, आश्चर्य, विस्मय, शंका, चिंता, आवेग, ग्लानि, विषाद, निराशा, उत्साहहीनता, घृणा, जुगुप्सा आदि भावों के रूप में ऋणात्मक ऊर्जा से सिक्त हो जाता है।
इस प्रकार की ऋणात्मक ऊर्जा की विशेषता यह होती है कि इसके अंतर्गत आश्रय आलंबनों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करता है, उसके मन से ‘रमणीयता’ जैसा तत्त्व गायब हो जाता है। मन से उत्साह खत्म होने के कारण व्यक्ति कोई संवेदनात्मक या सकारात्मक साहसपूर्ण कार्य करने के प्रति उदासीन हो जाता है। आलंबनों के प्रति यह ऋणात्मक ऊर्जा अनुभवों के रूप में आँखें मींच लेना, थूकना, नाक सिकोड़ना, काँप उठना, मुख का पीला पड़ जाना या घबराहट बढ़ना, आँखें लाल होना, कठोर उक्तियाँ, गर्जन-तर्जन, शस्त्र-संचालन, दाँत पीसना, फड़कना आदि क्रियाएँ जागृत हो जाती हैं। उदाहरण के लिए-
पेट को रोटी नहीं, तन पर कोई कपड़ा नहीं
अब किसी के वास्ते शृंगार कोई क्या करे।
    इन पंक्तियों में गरीबी और भुखमरी की शिकार आश्रय [नायिका ] की अनुभूतियाँ इतनी दुःखात्मक हैं कि उसमें रति के प्रति सारा-का-सारा उत्साह, निराशा-उदासीनता में बदल गया  है। यह उत्साहहीनता एक ऐसी ऋणात्मक ऊर्जा है, जो नारी के मन में रमणीय तत्वों का ह्रास कर रही है।

भाव या ऊर्जा के विभिन्न गतिशील स्वरूप
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    आश्रय जब आलंबनगत उद्दीपन धर्म या प्रकृतिगत उद्दीपन धर्म के प्रति संवेदनशील होता है तो उसमें विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का संचय होता है। ऊर्जा-संचयन की यह प्रक्रिया निश्चित गति से एक दिशा या भिन्न दिशाओं में उत्तरोत्तर वृद्धि पाती है। ऊर्जा-संचयन की इस प्रक्रिया में विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का उद्भव होता है। इस उद्भव के उपरांत यह समस्त ऊर्जाएँ एक विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा में तब्दील हो जाती हैं। काव्य के अंतर्गत इन विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं को भाव और स्थायी भाव कहा जाता है। ऊर्जा अपने विभिन्न स्वरूपों में किस प्रकार गतिशील होकर एक विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा में तब्दील हो जाती है, इसे समझाने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है-
मैया मोरी मैं नहिं माखन खायौ।
भोर भये गैयन के पीछे मधुवन मोहि पठायौ
चार पहर वंशीवट भट्क्यौ, साँझ परे घर आयौ
मैं बालक बँहियन को छोट्यौ, छींकौ कहि विधि पायौ
ग्वाल-बाल सब बैर पड़े हैं, बरबस मुँह लिपटायौ
यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुत ही नाच नचायौ
सूरदास तब विहँसि यशोदा ले उस कंठ लगायौ।
    महाकवि सूरदास के उक्त पद में ऊर्जा या भाव का संचयन दो प्रकार से हो रहा है। प्रथम स्थिति आलंबन के रूप में यशोदा की है, जो कृष्ण की माखन चोरी पकड़े जाने पर, उनसे माखन चोरी उगलवाने या स्वीकारवाने के लिए, गुस्से में धमकी, मार, पिटाई करने पर आमादा है। दूसरी स्थिति श्रीकृष्ण की है, जो यशोदा मैया का क्रोधित रूप देखकर भय से ग्रस्त हो गए हैं, लेकिन अपनी चोरी पकड़े जाने के प्रति अपने बचाव में विभिन्न प्रकार के भावों से सिक्त हो रहे हैं, जिनका प्रगटीकरण उनके वाचिक अनुभावों में हो रहा है।
    पद की प्रथम पंक्ति में श्रीकृष्ण के मन में भय तथा दैन्य के भाव हैं, जो एक ऐसी ऊर्जा का परिचय दे रहे हैं, जिसमें श्रीकृष्ण माखन चोरी न किए जाने का मैया से निवेदन कर रहे हैं।
    पद की दूसरी पंक्ति में श्रीकृष्ण के वाचिक अनुभावों में माखन चोरी के आरोप से बचने के लिए चतुराई के भाव का प्रस्पफुटन हो रहा है जिसकी ऊर्जा भोर होते ही गाय चराने के लिए माँ यशोदा द्वारा मधुवन भेजे जाने जैसे तर्क में व्यक्त हो रही है।
    पद की तीसरी पंक्ति में श्रीकृष्ण के अनुभावों से [ चार पहर वंशीवट भट्क्यौ, साँझ परे घर आयौ ] के तर्क के रूप, थकान और व्यस्तता की ऊर्जा का परिचय मिलता है।
    पद की चौथी पंक्ति में श्रीकृष्ण अपने बालपन, छोटी-छोटी बाँहों और ऊंचे स्थान पर छींके की स्थिति के पीछे विवशता की ऊर्जा को उजागर कर रहे हैं, जिसकी क्षमता माखनचोरी जैसा कार्य नहीं कर सकती।
    पद की पाँचवीं पंक्ति में इन सारे तर्कों के असपफल हो जाने , श्रीकृष्ण एक नया तर्क ग्वाल-बालों द्वारा उनके मुँह पर माखन लिपटा देने के कारण वैरभाव दर्शा रहे हैं, जिसके मूल में असमर्थता एवं निष्छलता की ऊर्जा कार्य कर रही है।
    पद की छठवीं पंक्ति में श्रीकृष्ण के सारे तर्क असपफल हो जाने पर, उनके मन में एक नयी रोष एवं विरक्ति की ऊर्जा का संचयन हो रहा है, जिसका प्रदर्शन लाठी और कंबल फैंकने के कार्य एवं विभिन्न प्रकार से सताए जाने की शिकायत के रूप में हो रहा है।
    उक्त पद की प्रथम पंक्ति से लेकर छठवीं पंक्ति तक भय, दैन्य, थकान, व्यस्तता, रोष, शिकायत, धौंस के माध्यम से जिस प्रकार की ऋणात्मक ऊर्जा के विभिन्न रूप बन रहे हैं, यह ऊर्जाएँ कुल मिलाकर चोरी के आरोप से बचाव की ऊर्जा बनकर उभर रही है, जो शुरू से लेकर अंत तक चतुराईजन्य या झूठजन्य ही हैं।
    सूरदास के इस पद में आश्रय के रूप में यशोदा की दूसरी स्थिति है, जिसके मन में क्रोध की ऊर्जा विद्यमान है, लेकिन जब वह श्रीकृष्ण के बालमुख से चोरी पकड़े जाने के बचाव के प्रति दिए गए श्रीकृष्ण के तर्कों के प्रति चतुरता और चपलता का अनुभव करती है तो क्रोध की सारी-की-सारी ऊर्जा वात्सल्य में तब्दील हो जाती है, वह मुस्कराती हैं और श्रीकृष्ण को गले से लगा लेती हैं।
    सूरदास के उपरोक्त पद के माध्यम से ऊर्जा के गतिशील स्वरूप के विवेचन से हम यह कहना चाहते हैं कि प्राणी के मन में उत्पन्न हुई ऊर्जा का संबंध उसके चिंतन या विचार करने की प्रक्रिया से होता है। जैसे-जैसे उसके मन में विचारों में परिवर्तन आता है, वैसे-वैसे ऊर्जा के विभिन्न रूप बदलते चले जाते हैं।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

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काव्य में विचार और ऊर्जा +रमेशराज





काव्य में विचार और ऊर्जा

+रमेशराज
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    डॉ. आनंद शंकर बापुभाई ध्रुव अपने ‘कविता’ शीर्षक निबंध में कहते हैं कि-‘जिस कविता में चैतन्य नहीं है अर्थात् जो वाचक को केवल किन्हीं तथ्यों की जानकारी मात्र प्रदान करती है, परंतु आत्मा की गहराई में पहुँचकर उद्वेलन नहीं करती अथवा चेतना की घनता व समत्व उत्पन्न नहीं कर सकती, वह कविता हो ही नहीं सकती। ऐसी जड़ कविताएँ भूगोल, इतिहास अथवा पफार्मूला की संज्ञा पाने योग्य हैं। ‘जानेवरी जाण जो फेब्रुआरी होय अर्थात् जनवरी जानिए पुनि फरवरी  होय’ यह कविता नहीं है, परंतु ‘सहु चलो जीतवा जंग ब्यूगलो वागे’ अर्थात् सब जंग जीतने चलो, बिगुल बज रहे हैं’-यह कविता है।’’1
डॉ. ध्रुव ने कविता के कवितापन को तय करने के लिए कविता के जिस चैतन्यस्वरूप का जिक्र किया है, वह चेतनता, वाचक अर्थात् आश्रय की आत्मा की गहराई में उद्वेलन के रूप में पहचानी जा सकती है। प्रश्न यह है कि कविता में ऐसा क्या तत्त्व होता है जो पाठक को उद्वेलित करता है? इस उद्वेलित करने वाले तत्त्व का स्वरूप क्या है? भूगोल, इतिहास अथवा फार्मूला की संज्ञा पाने वाली कविता जड़ क्यों होती है? इन सारे प्रश्नों का समाधान एक ही है कि कविता के माध्यम से पाठक या आश्रय के मन को किसी न किसी तरह ऊर्जा उद्वेलित करती है। बिना ऊर्जा के पाठक के मन में किसी भी प्रकार का उद्वेलन संभव नहीं, यह एक वैज्ञानिक प्रामाणिकता है। किसी भी प्रकार के कार्य को कराने की क्षमता का नाम चूंकि ऊर्जा है, अतः सोचने का विषय यह है कि वह ऊर्जा काव्य या कविता से किस प्रकार प्राप्त होती है? इसका उत्तर यदि हम डॉ. ध्रुव  के ही तथ्यों में खोजें तो भूगोल, इतिहास और फार्मूला की संज्ञा पाने वाली ‘जनवरी जानिए पुनि फरबरी होय,’ पंक्तियाँ, इसलिए कविता नहीं हो सकतीं, क्योंकि इसमें पाठक के मन को उद्वेलित करने की क्षमता नहीं है। या रसाचार्यों के मतानुसार कहें तो इसके द्वारा पाठक के मन में किसी भी प्रकार की भावात्मकता उद्बुद्ध नहीं होती। अर्थ साफ है कि पाठक के मन में भाव-निर्माण की प्रक्रिया, ऊर्जा के निर्माण की प्रक्रिया होती है। क्योंकि जब तक पाठक के मन में किसी कविता के पाठन से कोई भाव नहीं बनता, तब तक उसकी शारीरिक क्रियाएँ [ अनुभाव ] जागृत नहीं होतीं। क्रोध के समय शत्रु पर प्रहार करना, रति में चुंबन, विहँसन, आलिंगन तथा दया में संकटग्रस्त व्यक्ति या लोक या बचाने या सहायता करने की क्रियाएं भाव या ऊर्जा के द्वारा ही संपन्न होती हैं। अतः ‘जनवरी जानिए पुनि फरबरी होय’ कविता इसलिए नहीं हो सकती, क्योंकि इसके द्वारा पाठक के मन में किसी भी प्रकार के भाव या ऊर्जा के निर्माण की संभावना नहीं, जबकि ‘सब जंग जीते चलो, बिगुल बज रहे हैं’ को कविता की श्रेणी में इसलिए रखा जा सकता है क्योंकि यह पंक्तियाँ सामाजिक को इस तथ्य से अवगत करा रही हैं कि युद्ध का समय हो गया है, बिगुल बज रहे हैं और जंग को जीतना है।’’ उक्त कविता से पाठक के मन में पहुँचा ‘ जंग जीतने का विचार’ पाठक में साहस का संचार करेगा। पाठक के मन में आया यह साहस का भाव, ऊर्जा के रूप में पाठक के मन को उद्वेलित कर डालेगा।
    डॉ. ध्रुव के उपरोक्त तथ्यों की इस मनौवैज्ञानिक व्याख्या से निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-
1. किसी भी कविता को कविता तभी माना जा सकता है जबकि वह पाठक को कुछ सोचने-विचारने के लिए मजबूर कर सके। इस तथ्य को हम इस प्राकर भी व्याख्यायित कर सकते हैं कि कविता पाठक के मन पर एक ऐसे बल का कार्य करती है, जिसके द्वारा उसके मन में ऊर्जा का समस्त जड़स्वरूप, गतिशीलस्वरूप में तब्दील हो जाता है। [ ऊर्जा के समस्त जड़स्वरूप से यहाँ आशय उन विचारों, भावों एवं स्थायीभावों से है, जो काव्य-सामग्री के वाचन से पूर्व अचेतन अवस्था में आश्रयों के मस्तिष्क में रहते हैं। ]
2. काव्य-सामग्री के वाचन या आस्वादन के समय पाठकों के मन में जब विभिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं तो वह विचार ही पाठक के मन को विभिन्न प्रकार से ऊर्जस्व बनाते हैं। अतः यह भी कहा जा सकता है कि विचारों से उत्पन्न ऊर्जा का नाम ही भाव है या भाव, विचारों से जन्य एक ऊर्जा है।
3. इस निष्कर्ष से यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि काव्य जब पाठक के मन पर बल का कार्य करता है तो पाठक उस बल के आधार पर कुछ निर्णय लेता है। पाठक द्वारा लिए गए इस निर्णय के अनुसार ही उसके मन में विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का निर्माण होता है, जिन्हें भाव कहा जाता है। चूंकि ऊर्जा अर्थात् भावों का प्रकटीकरण अनुभावों अर्थात् आश्रय के क्रियाकलापों में होता है अतः यहाँ यह कहना भी अतार्किक न होगा कि अनुभाव शक्ति के द्योतक होते हैं, क्योंकि विज्ञान के अनुसार शक्ति से आशय होता है-कार्य करने की दर।
    डॉ. ध्रुव के तथ्यों के सहारे निकाले गए उक्त निष्कर्षों का आधार चूंकि काव्य चेतनामय होना है, अतः यह बताना भी जरूरी है कि काव्य की सारी की सारी चेतना जहाँ पाठकों को ऊर्जस्व बनाती है, वहीं काव्य का चेतनामय स्वरूप भी पूर्णतः गतिशील ऊर्जा या भाव का क्षेत्र होता है। काव्य में यह गतिशील ऊर्जा हमें आलंबन और आश्रय दोनों ही स्तरों पर देखने को मिलती है। इसी कारण प्रो. श्री कंठय्या मानते हैं कि काव्य का आस्वाद कोई निर्जीव बौद्धिक ज्ञान नहीं है, पाठक को व्यक्तित्व की प्रत्येक शिरा में उसकी मूलवर्ती प्रेरणा का ज्ञान करना पड़ता है।’’1
    काव्य तथा उसके आस्वादन के विषय में आचार्य शुक्ल के तथ्यों की इस मार्मिकता को समझना अत्यंत आवश्यक है कि ‘‘जो भूख के लावण्य, वनस्थली की शुष्मा, नदी या शैलतटी की रमणीयता... जो किसी प्राणी के कष्ट व्यंजक रूप और चेष्टा पर करुणाद्र नहीं होता, जो किसी पर निष्ठुर अत्याचार होते देख क्रोध से नहीं तिलमिलाता, उसे काव्य का प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता कभी नहीं हो सकती।2
    आचार्य शुक्ल के काव्य तथा उसके आस्वादकों के विषय में प्रस्तुत किए गए उक्त विचारों से भी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी भी आश्रय में काव्य से ऊर्जा का समावेश तभी हो सकता है जबकि वह काव्य-जगत से अलग लौकिक जगत की उन सारी क्रियाओं से उद्वेलित होता रहा हो, जो कि काव्य की अभिव्यकित का विषय बनी हैं या बनती हैं। बहरहाल इस विषय की व्यापकता में न जाते हुए अपनी मूल बात पर आएँ कि चाहे काव्य-जगत के पात्र हों या लौकिक-जगत के पात्र, उनके मन में ऊर्जा के रूप में भावों का निर्माण विचार के कारण ही होता है और विचार जब तक किसी प्रकार की गतिशील अवस्था ग्रहण नहीं करते, तब तक आश्रयों के मन में किसी भी प्रकार की भावपरक ऊर्जा का निर्माण नहीं होता। इस बात को समझाने के लिए यदि हम काव्य के वैचारिक एवं भावात्मक स्वरूप पर प्रकाश डालें तो यह बात सरलता से समझ में आ जाएगी कि-
श्रृंगार रस के अंतर्गत जब तक नायिका-नायक एक-दूसरे के प्रति यह विचार नहीं करते कि ‘हमें एक-दूसरे के सामीप्य से असीम सुख मिलेगा’ तब तक उनके मन में रति के रूप में ऐसी कोई ऊर्जा जागृत नहीं हो सकती जो उन्हें चुंबन, आलिंगन तक ले जाए। ठीक इसी प्रकार किसी व्यक्ति पर निष्ठुर अत्याचार होते देख कोई यह विचार नहीं करता कि ‘अमुक व्यक्ति पर निष्ठुर रूप से अत्याचार हो रहा है, यह गलत है, इसे अत्याचारी के अत्याचार से बचाया जाना चाहिए’, तब तक क्रोध के रूप में वह ऐसी कोई ऊर्जस्व अवस्था ग्रहण नहीं कर सकता, जिसके तहत वह अत्याचारी का बढ़कर हाथ पकड़ ले या उसके जबड़े पर दो-चार घूँसे जड़ दे। कभी न समाप्त होने वाला संताप केवल मनुष्य ही झेलता है, कोई पशु नहीं, क्योंकि वह इस विचार के कारण विभिन्न प्रकार से ऊर्जस्व बना रहता है कि-‘अमुक व्यक्ति ने मेरा अपमान किया है, मुझे यातना दी है, मरा धन लूटा है, मेरी मानहानि की है’
    जब तक मनुष्य के मन में इस प्रकार के विचार स्थायित्व ग्रहण किए रहेंगे, तब तक उसका मन विषाद, क्षोभ, दुःख, आक्रोश, असंतोष, क्रोध आदि के रूप में ऊर्जस्व होता रहेगा। महाभारत की नायिका द्रौपदी का अपमान जब दुःशासन और दुर्योधन ने किया तो वह इस विचार से कि-‘ मेरा भरी सभा में अपमान हुआ है और मैं चैन से तब तक नहीं बैठँूगी, जब तक कि इन दोनों की मृत्यु न देख लूँ।’ वह तब तक क्रोधावस्था की ऊर्जा ग्रहण किए रही, जब तक कि उनका अंत न हो गया । ठीक इसी प्रकार रावण से अपमानित विभीषण ने अपने क्रोध को रावणवध के उपरांत ही शांत किया। यदि छल-कपट से पांडवों का राज्य दुर्योध्न ने न छीना होता तो वह इस ऊर्जस्व अवस्था को ग्रहण न करते कि पूरे कौरव वंश का ही विनाश करना पड़ता।
    सारतः हम कह सकते हैं कि ऊर्जा के गतिशील स्वरूप का जब पाठक आस्वादन करते हैं तो यह गतिशील ऊर्जा उनके मन पर बल का कार्य करती  है, परिणामस्वरूप उनके मन में भी काव्य-सामग्री से तरह-तरह के विचार जन्म लेते हैं, जिनकी गतिशीलता, ऊर्जा के रूप में क्रोध, रति, हास आदि में अनुभावों के माध्यम से देखी या अनुभव की जा सकती है।
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