Saturday, July 16, 2016

इक्कीसवीं सदी की कविता में रस +रमेशराज





इक्कीसवीं सदी की कविता में रस
   
+रमेशराज 
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हिन्दी कविता के नवें दशक का यदि परम्परागत तरीके से रसात्मक विवेचन करें तो कई ऐसी अड़चनों का सामना करना पड़ सकता है कि  जिनके रहते रस की परम्परागत कसौटी या तो असफल सिद्ध होगी या परख के नाम पर जो परिणाम मिलेंगे, वह वर्तमान कविता का सही और सारगर्भित रसात्मक आकलन नहीं माने जा सकते। अतः जरूरी यह है कि आदि रसाचार्य भरतमुनि के रसनिष्पत्ति सम्बन्धी सूत्र-‘विभावानुभाव व्यभिचारे संयोगाद रस निष्पत्तिः’ में अन्तर्निहित भावसत्ता का वैचारिक विवेचन किया जाये और यह समझा जाये कि भाव का उद्बोधन किस ज्ञान या बुद्धि अवस्था में होता है। रस को गूंगे का गुड़ बनाकर परोसने से जो गूंगे नहीं है, उनके प्रति तो अन्याय होगा ही।
    वर्तमान कविता पर अक्सर यह आरोप लगाये जाते हैं कि यह कविता विचार प्रधान होने के कारण भावविहीन है | इसमें किसी प्रकार का रस.परिपाक सम्भव नहीं। यह तर्क ऐसे रसमीमांसकों का है, जो रस की अपूर्णता में ही पूर्णता का भ्रम पाले हुए हैं और भाव तथा रस की रट लगाये हुए हैं। उनके मन को यह मूल प्रश्न कभी उद्वेलित नहीं करता कि यह भाव किसके द्वारा और किस प्रकार निर्मित होकर रस.अवस्था तक पहुंचता है। रसों की तालिका में किसी नये रस की बढ़ोत्तरी भी नहीं करना चाहते हैं। जबकि आदि आचार्य मुनि ने जो रसतालिका प्रस्तुत की उसमें बाद में चलकर अनेक रस जोड़े गये। ऐसा इस कारण है कि आज के कथित रसमर्मज्ञ रस के प्रति चिंतक कम, व्यावसायिक ज्यादा हैं। उन्हें इधर.उधर से सामग्री इकट्ठा कर पुस्तक छपवाने और पैसा कमाने में रूचि अधिक है। मौलिक चिन्तन के प्रति उनका रूझान न बराबर है।
    बहरहाल यह तो निश्चित है कि चाहे कविता का परम्परागत स्वरूप रहा हो या कविता का बदला हुआ वर्तमान स्वरूप, सबके भीतर रस की धारा झरने की तरह फूटकर, कल.कल नाद करती हुई नदी बनकर बहती है और हर एक सुधी पाठक के मन को आर्द्र करती है। परम्परागत कविता के रसात्मक आकलन के लिये तो हमारे पास एक बंधी-बंधाई कसौटी है, लेकिन वर्तमान कविता के रसात्मकबोध का हमारे पास कोई मापक नहीं। इसका सीधा.सीधा कारण यह है कि वर्तमान कविता में सामान्यतः उन रसों की निष्पत्ति नहीं होती, जो हमारे पूर्ववर्ती रसाचार्यों द्वारा गिनाये गये हैं। और हम नये रसों की खोज करने में आजतक सामर्थ्यवान नहीं हो पाये हैं। इसलिये अपनी खीज मिटाने के लिये हम तपाक से एक जुमला उछाल देते हैं कि-वर्तमान कविता तो विचार प्रधान कविता है | इसमें भावोद्बोधन का मधुर प्लावन कहां ? वर्तमान कविता को विचार प्रधान कविता सिद्ध करने वालों की महान रसात्मक बुद्धि को पता ही नहीं कि भाव विचार की ऊर्जा होते हैं।
    विचार के बिना भाव का निर्माण किसी प्रकार न पहले सम्भव था और न अब है। यदि परशुराम की ज्ञानेन्द्रियों को यह विचार न उद्वेलित करता कि राम ने शिव का धनुष तोड़ दिया है, तो कैसा क्रोध और किस पर क्रोध। यदि रावण को यह विचार न मंथता कि लक्ष्मण और राम ने उसकी बहिन सूपनखा को अपमानित किया है, तो क्रोध के चरमोत्कर्ष के कैसे होते रावण में दर्शन। यदि राम के मन को यह विचार न स्पर्श न करता कि उनके अनुज को मेघनाद ने मूर्छित कर दिया है और यदि समय रहते चिकित्सा न हुई तो लक्ष्मण का प्राणांत हो सकता है, तो कैसा विलाप,  कैसा शोक।
    अस्तु! विचार के बिना किसी भी प्रकार के भाव का निर्माण सम्भव नहीं। यदि भावोद्बोधन नहीं तो कैसी रसनिष्पत्ति और कैसा रस ? जब रस का मूल आधार विचार ही है तो हम आज की कविता को मात्र वैचारिक कहकर रस के मूल प्रश्न से किनारा कर ही नहीं सकते। इसलिये जरूरी है कि यदि वर्तमान कविता पूर्ववर्ती रसाचायों द्वारा गिनाये गये रसों के आधार पर परखी नहीं जा सकती तो कुछ नये रसों को खोज की जानी चाहिए। वैसे भी यह कोई अप्रत्याशित और अरसात्मक कदम नहीं होगा | क्योंकि आचार्य भरतमुनि द्वारा गिनाये रसों में भी शांतरस, भक्तिरस जैसे कई रसों की बाद में जोड़ा गया है।
    बात चूंकि नवें दशक की कविता के संदर्भ में चल रही है तो मैं यह निवेदन कर दूं कि नवें दशक की कविता की चर्चित विधा ‘तेवरी’ में मैंने अपनी पुस्तक ‘तेवरी में रससमस्या और समधान’ में  दो नये रस विरोधरस और विद्रोहरस की खोज की है जिनके स्थायी भाव क्रमशः ‘आक्रोश’ और ‘असंतोष’ बताये हैं। वर्तमान कविता जिन वैचारिक प्रक्रियाओं से होकर गुजर रही हैए ‘तेवरी’ भी उसी वैचारिक प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। अतः यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि तेवरी में जिन रसों का उद्बोधन होता है, वही रस वर्तमान कविता में भी उद्बोधित होते हैं।
    कविता में विरोध और विद्रोह रस की निष्पत्ति किस प्रकार और कैसे होती है, इसे समझाने के लिये ‘नवें दशक’ की कुछ कविताओं के उदाहरण प्रस्तुत हैं-
1. विरोध रस-इस रस का मुख्य आलम्बन वर्तमान व्यवस्था या उसके वह अत्याचारी शोषक और आतातायी पात्र हैं, जो शोषित और पीडि़त पात्रों को अपना शिकार बनाते हैं। आलम्बन के रूप में वर्तमान व्यवस्था या उसके पात्रों के धर्म अर्थात् आचरण को देखकर या अनुभव कर दुखी शोषित त्रस्त पात्र जब अपने मन में लगातार त्रासदियों को झेलते हुए यह विचार लाने लगते हैं कि वर्तमान व्यवस्था बड़ी ही बेरहम, अलोकतांत्रिक और गरीबों का खून चूसने वाली व्यवस्था है, तो यह विचार अपनी ऊर्जस्व अवस्था में अपने चरमोत्कर्ष पर ‘आक्रोश’ को जन्म देता है। विभिन्न प्रकार की वैचारिक प्रक्रियाओं से गुजरकर बना यह स्थायी भाव ही ‘विरोध’ को रस की परिपक्व अवस्था तक ले जाता है-
‘उत्तर प्रदेश की हरिजन कन्या हो
या महाभारत की द्रौपदी
दोनों में से किसी का अपमान देखने वाला
चाहे वह भीष्म पितामह हो
या गुरु द्रोणाचार्य या चरणसिंह
मेरे लिये धृतराष्ट्र ही हैं।‘
    ‘विरोध’ शीर्षक से साहित्यिक पत्रिका ‘काव्या’ के अप्रैल.जून.90 [सं- हस्तीमल हस्ती] में प्रकाशित श्री विश्वनाथ की उक्त कविता का यदि हम रसात्मक विवेचन करें तो इस कविता में उत्तर प्रदेश की हरिजन कन्या या महाभारत में हुए द्रौपदी के अपमान को सुनकर, देखकर या अनुभव कर आश्रय रूपी कवि का मन मात्र ऐसे धृतराष्ट्रों के प्रति ही आक्रोश से सिक्त नहीं होता जो आंखों से अंधे हैं। उसके मन में ऐसी वैचारिक ऊर्जा सघन होती है जो भीष्म पितामह से लेकर गुरु द्रोणाचार्य, यहां तक कि  किसान नेता चरणसिंह के प्रति भी ‘आक्रोश’ को जन्म देती है। कारण-कवि के मन में यह विचार कहीं न कहीं ऊर्जस्व अवस्था में है कि धृतराष्ट्र की तरह ही सब के सब नारी अपमान के प्रति आंखें मूदे रहे हैं। ‘नारी अपमान को अनदेखा करने का यह विचार’ कवि को जिस आक्रोश से सिक्त कर रहा है, यह आक्रोश ही विरोधरस का वह परिपाक है, जिसकी रसात्मकता आत्मीयकरण की स्थिति में सुधी पाठकों को आक्रोश से सिक्त कर धृतराष्ट्रों के विरोध की और ले जायेगी।
2. विद्रोह रस- विरोधरस का मूल आलम्बन भी व्यवस्था और उसके वह पात्र होते हैं जो शोषित दलित पात्रों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। उनकी सुविधाओं पर ध्यान नहीं देते। परिणामतः मेहनतकश, दलित, शोषित वर्ग में ‘असंतोष’ के ज्वालामुखी सुलगने लगते हैं। ‘असंतोष’, ‘विद्रोह रस’ का स्थायी भाव है। इसके संचारी भावों में दुख, अशांति, क्षोभ, आक्रोश, खिन्नता, उदासी आदि माने जा सकते हैं। इस रस के मुख्य अनुभाव-अवज्ञा, ललकार, चुनौती, फटकार आदि हैं-
तुहमतें मेरे न सर पर दीजिए
झुक न पायेगा कलम कर दीजिए।
सत्य के प्रति और भी होंगे मुखर
आप कितने भी हमें डर दीजिए।
    वर्ष 1988 में प्रकाशित दर्शन बेजार के तेवरी संग्रह-दे श खंडित हो न जाए’ की उपरोक्त ‘तेवरी’ का यदि रसात्मक विवेचन करें तो सत्य और  ईमानदारी की राह पर चलने वाले एक सच्चे इन्सान की यह व्यवस्था उसे इस मार्ग को डिगाने के लिये मात्र डराती-धमकाती ही नहीं, उसका खात्मा भी कर देने चाहती है। ऐसी स्थिति में वह ऐसी घिनौनी व्यवस्था से कोई समझौता कर संतोष या चैन के साथ चुप नहीं बैठ जाता, बल्कि संघर्ष करता है, उसे ललकारता है। कुल मिलाकर उसके मन में व्यवस्थापकों के प्रति ऐसा ‘असंतोष’ जन्म लेता है, जो खुलकर ‘विद्रोह’ में फूट पड़ता है। भले ही उसका सर कलम हो जाये लेकिन वह कह उठता है कि ‘सत्य के प्रति ऐसे हालातों में मुखरता और बढ़ेगी’। व्यवस्थापकों के प्रति ‘असंतोष’ से जन्य यह अवज्ञा और चुनौती से भरी स्थिति ‘विद्रोह’ का ही रस परिपाक है।
    नवें दशक की कविता को समझने के लिये आवश्यक है कि हम निम्न तथ्यों को भी समझने का प्रयास करें कि भाव विचार से जन्य ऊर्जा ही होते हैं। यदि कवि के मन में यह विचार न आया होता कि ‘उत्तर प्रदेश में हरिजन कन्या के साथ अत्याचार हुआ है और महाभारत काल में द्रौपदी का अपमान’ तो उसके मन में आक्रोश का निर्माण किसी प्रकार सम्भव न था। दूसरी तरफ वह निर्णय न लेता कि ‘नारी अपमान को अनदेखा करने वाले भी अंधे घृतराष्ट्र से कम अपराधी नहीं होते’। तभी तो वह भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य या राजनेता चरणसिंह को धृतराष्ट्र की श्रेणी में रखता है। उपरोक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि रस की निष्पत्ति आलम्बन से नहीं, आलम्बन के धर्म से होती है। यदि द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह या चरण सिंह ने नारी अपमान के प्रति अपना विरोध प्रकट किया होता या धृतराष्ट्र के नारी अपमान न होने दिया होता तो कवि के मन में आक्रोश की जगह इन्हीं पात्रों के प्रति श्रद्धा जाग उठती।
    काव्य का सम्बन्ध जब दर्शक पाठक या श्रोता से जुड़ता है तो यह कोई आवश्यक नहीं कि उसमें उसी प्रकार के रस की निष्पत्ति हो जो काव्य के पात्रों में या काव्य में अन्तर्निहित है। इसके लिये जरूरी है कि पाठक, दर्शक, श्रोता का आत्म भी ठीक उसी प्रकार का हो जो कवि की आत्माभिव्यक्ति से मेल खाता है। इसी कारण मैं काव्य में साधारणीकरण नहीं, आत्मीयकरण की सार्थकता को ज्यादा सारगर्भित मानता हूं। यह आत्मीयकरण के कारण ही है कि तुलसी के काव्य के प्रति सारी सहृदयता को उड़लने वाले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य केशव के प्रति इतने हृदयहीन क्यों हो जाते हैं कि उन्हें काव्य का प्रेत कह डालते हैं। जबकि डॉ. विजयपाल सिंह में केशव के प्रति कथित सहृदयता का तत्त्व साफ-साफ झलकता है।
    इसलिये नवें दशक की कविता को रसाभास का शिकार बनाने से पूर्व इसमें अन्तर्निहित इन दो नये रसों के साथ-साथ हमें  साधारणीकरण के मापकों को त्यागकर ‘आत्मीयकरण’ का नया मापक लेना ही पड़ेगा, तभी नवें दशक की कविता का रसात्मक आकलन हो सकता है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

व्यंग्य एक अनुभाव +रमेशराज




व्यंग्य एक अनुभाव

+रमेशराज
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 डॉ. शंकर पुणतांबेकर से मेरी भेंट बरेली लघुकथा सम्मेलन में हुई। लघुकथाकारों के बीच मुझे डॉ. शंकर पुणतांबेकर काफी सुलझे हुए विचारों वाले चिन्तक लगे। वर्तमान साहित्य में रसपर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘वर्तमान साहित्य को रस की पुरानी पद्यति के आधार पर नहीं आका जा सकता।.. इसके लिये हमें नये रसों की खोज करनी पड़ेगी।’’ इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘मेरे विचार से वर्तमान साहित्य में बुद्धि रसया विचार रसकी निष्पत्ति होती है।’’
डॉ. पुणतांबेकर की इस बात से तो मैं सहमत हुए बगैर न रह सका कि वर्तमान यथार्थोन्मुखी साहित्य के आकलन के लिये हमें रस की परम्परागत कसौटी का तो परित्याग करना ही पड़ेगा, इसके साथ-साथ इसके आकलन के लिये नये रसों का खोजा जाना भी आवश्यक है | वैसे भी यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं होगी। आचार्य भरतमुनि के बाद भी तो रस परम्परा को जीवंत और प्रासंगिक बनाने के लिये भक्ति रस, शान्त रस जैसे मौलिक रसों की खोज की गयी। लेकिन उनका यह मानना कि वर्तमान कविता में बुद्धि रसया विचार रसजैसा कोई रस होना चाहिए या हो सकता है, मुझे अटपटा और अतर्कसंगत महसूस हुआ। मैंने डाक्टर साहब से इस विषय में निवेदन किया कि ‘‘ बिना बुद्धि या विचार के आश्रयों के मन में क्या किसी प्रकार से या किसी प्रकार की रसनिष्पत्ति सम्भव है? भाव तो विचार की ऊर्जा होते हैं। विचार के बिना भाव का उद्बोधन किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। यदि हमारे मन में यह विचार नहीं कि राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए’’ तो ऐसे विचार के बिना कैसी राष्ट्रभक्ति? शत्रु पक्ष को कुचलने का विचार यदि मानव को उद्वेलित न करें तो कैसे होगी रौद्र-रस की निष्पत्ति? ठीक इसी प्रकार यदि हमारे मन में यह विचार घर किये हुए न हो कि सामने शेर है और वह कभी भी हमारे प्राण ले सकता है तो कैसे होगा हमारे मन में भय का संचार? अतः यह तो मानना ही पड़ेगा कि रस के निर्माण में बुद्धि अपनी अहं भूमिका निभाती है। हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि हमने रस को बुद्धि तत्त्व से काटकर कोरी भावात्मकता की ऐसी अन्धी गुफाओं में कैद कर डाला, जहां तर्क और विज्ञान की रोशनी पहुंचने की कोई गुंजाइश नहीं। परिणाम हम सबके सामने हैं कि रीतिकाल का कूड़ाकचरा और छायावाद-प्रयोगवाद की यौन कुंठाओं से भरी हुई कविता भी कथित सूक्ष्म अनुभूति का रसात्मक पक्ष बन गयी। बहरहाल इस चर्चा में डॉ. पुणतांबेकर ने यह तो स्वीकारा कि रस को बिना बुद्धि के तय नहीं किया जा सकता। लेकिन बुद्धि रसया विचार रसके प्रति वह अपने आपको तटस्थ रखते हुए चुप हो गये।
    रस के संदर्भ में यह सारी चर्चा यहां इसलिए उठायी गयी है क्योंकि व्यंग्य-विविधानामक पत्रिका के अंक-दो में विवाद एक विधा काके अन्तर्गत कुछ इसी प्रकार की चर्चा विभिन्न पत्रों में की गयी है, जो डॉ. शंकर पुणतांबेकर के आलेख विधा के रूप में व्यंग्य की स्थापनासे सम्बन्धित है। व्यंग्यएक विधा है अथवा नहीं, इसे तो तय व्यंग्यकारों को ही करना है। फिलहाल अपने आपको इस सारे पचड़े से दूर रखते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि व्यंग्य के बिना वर्तमान साहित्य को सार्थक, प्रासंगिक नहीं ठहराया जा सकता। व्यंग्य वर्तमान साहित्य का प्राण है, बशर्ते उसमें  सत्य और शिव का समन्वय हो।
    ‘तेवरी में रस-समस्या और समाधाननामक अपनी पुस्तक में मैंने व्यंग्य की इसी प्रकार की सार्थकता को दृष्टिगत रखते हुए तेवरी का रसपरक विवेचन किया है और व्यंग्य को वाचिक अनुभाव मानते हुए यह सिद्ध किया है कि व्यंग्य एक वाचिक अनुभाव है और यह वाचिक अनुभाव साहित्य में विरोधऔर विद्रोह रसकी निष्पत्ति कराता है। 
    दो-दो नये रस-विरोधऔर विद्रोहकी खोज करते हुए इनके स्थायी भाव मैंने क्रमशः आक्रोशऔर असंतोषबताये हैं। उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि में मैं व्यंग्य विविधा-दोमें ही व्यंग्य की शैलीशीर्षक डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी के आलेख का एक अंश उद्धृत करना चाहूंगा कि-‘‘ व्यंग्य हर समय में परिवेशगत अन्तर्विरोधों एवं स्खलित चलनों के खिलाफ तेज हथियार की भूमिका में रहता है। व्यंग्यकार अपने समय की शोषित-भ्रमित जनता के दर्द का उद्घोषक होता है। लक्ष्यच्युत समाज की आंख में उंगली डालकर दोनों की परिसमाप्ति करना चाहता है। हर युग की हर भाषा के समर्थ व्यंग्यकार की सर्जना में कुनैन के तीतेपन और तेजाब की दाहक मात्रा इतनी अधिक रही है कि व्यंग्यालम्बन के तन-मन को बेचैन कर डालने के लिये पर्याप्त है। सजग व्यंग्यकार के पास परिवेशगत सड़ांध  और मवाद को महसूसने वाली सही घ्राणचेतना होती है और जेहाद छेड़ने की अनूठी भाषायी शक्ति भी। एक सनसनाती हुई तेजी के साथ व्यंग्यकार जो कुछ टूटने योग्य है, उसे तोड़ डालने का प्रयास करता है।’’
    डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी के उल्लेखित अंश के आधार पर निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-
1. बकौल डॉ. तिवारी-व्यंग्य में कुनैन के तीतेपन और तेजाब की दाहक मात्रा होती है जो परिवेशगत अन्तर्विरोधों, स्खलित चलनों, लक्ष्यच्युत समाज की परिसमाप्ति के लिये अर्थात्, जहां जो कुछ टूटने योग्य है, उसे तोड़ डालने का प्रयास करती है। प्रश्न यह है कि इस प्रकार के कार्य को करने की क्षमता अर्थात् ऊर्जा काव्य में कहां से प्राप्त होती है?
    प्रश्न का उत्तर यह है कि जिसे डाक्टर बालेन्दु शेखर तिवारी व्यंग्य में अन्तर्निहित कुनैन की तीतापन और तेजाब की दाहक मात्रा कह रहे हैं, वह कभी आक्रोशमें तो कभी असंतोषमें प्रकट होने वाली वह ऊर्जा है जो रस परिपाक की अवस्था में कभी विरोधतो कभी विद्रोहसे आश्रयों को सिक्त करती है। रसपरिपाक के रूप में यह ऊर्जा का चरमोत्कर्ष ही जब कार्य करने की दर अर्थात् शक्ति [व्यंग्य] में प्रकट होता है तो व्यंग्यालंबनों [परिवेशगत अन्तर्विरोध, सडांध और मवाद, लक्ष्यच्युत समाज] के प्रति जेहाद ही नहीं छेड़ता, इनमें जो कुछ टूटने योग्य होता है, उसे तोड़ डालने का प्रयास करता है। बात को समझाने के लिये व्यंग्य विविधा-दोसे ही प्रख्यात व्यंग्यकार शरदजोशी के व्यंग्य का उदाहरणस्वरूप एक अंश प्रस्तुत है-
‘‘कांग्रेस ने अहिंसा की नीति का पालन किया और उस नीति की सन्तुलित किया लाठीचार्ज और गोली से। सत्य की नीति पर चली। सच बोलने वालों से सदा नाराज रही। हस्तकर्धा और ग्रामोद्योग को बढ़ावा दिया और उसकी टक्कर लेने के लिये कारखानों को लायसेंस दिये।“
    शरद जोशी की उल्लेखित पंक्तियों का यदि हम रसात्मक विवेचन करें तो इन पंक्तियों में आलम्बन तो कांग्रेस है और रसात्मकबोध को पैदा करने वाला आलम्बनगत उद्दीपन विभाव अर्थात् आलम्बन का वह धर्म या आचरण है, जिसकी पहचान आश्रय के रूप में रचनाकार अन्तर्विरोधों, दुराचरणों, थोथे आदशों के रूप में करता है और वह जब यह निर्णय ले लेता है कि कांग्रेस की सन्तुलित नीति वह कथित नीति है, जिसका पालन वह अहिंसा का आदर्शवादी मुखौटा पहनकर जनता पर लाठी चार्ज और गोली चलाकर करती है। सत्यवादी होने का ढोंग रचकर सच का गला काटती है। ग्रामोद्योग के थोथे आश्वासन देकर शहरों में बड़े-बड़े कारखानों का विकास करती है’’ तो उसे कांग्रेस के घिनौने और जनविरोधी चेहरे की पहचान हो जाती है कि कांग्रेस वास्तव में थोथे आदर्शों, घिनौने आचरण वाली एक पार्टी है।’’
    जब आश्रय [रचनाकार] के मन को यह विचार ऊर्जस्व अवस्था में आता है तो उसका मन कांग्रेस के प्रति आक्रोशसे सिक्त हो जाता है। डॉ. स्वर्ण किरण के अनुसार-‘‘ आक्रोश शब्द आड. उपसर्ग पूर्वक क्रुश धातु में ध प्रत्यय लगाकर बनाया गया है। जिसका अर्थ है क्रोध, कर्तव्य निश्चय, आक्षेप, अभिषंग, शाप, कोसना, निंदा करना, कटूक्ति आदि।बिलबिलाहट आक्रोश का व्यवहार रूप है। आक्रोश वस्तुतः व्यक्ति की आंतरिक घृणा का मूर्त रूप है, जो असंगति, विसंगति को हटाने का काम करता है। व्यंग्य लेखक इसका उपयोग कभी सीधे, कभी प्रकारान्तर से करता है, पर इसका मूल लक्ष्य बुराई या कमी को दूर करना है। चाहे लघुकथा हो, लघुव्यंग्य हो, तेवरी हो या साहित्य की कोई अन्य विधा, आक्रोश अपने रोशन पहलू के रूप में हमारे सामने आता है।’’
    डॉ. स्वर्ण किरण की उपरोक्त मान्यता के आधार पर हम यदि शरद जोशी के उद्धृत अंश में आक्रोश की स्थिति देखें तो आश्रय के रूप में व्यंग्यकार के जो वाचिक अनुभाव यहां अपना व्यंग्यात्मक स्वरूप ग्रहण करते हैं, उसमें कांग्रेस की घिनौनी आचरणशीलता की निन्दा, कोसने की क्रिया, आक्षेप आदि लगाना व्यंग्य के रूप में अनुभावित हुआ है। इन अनुभावों के सहारे हम यह आसानी से पता लगा सकते हैं कि व्यंग्यकार के मन में कांग्रेस के प्रति जिस प्रकार की बिलबिलाहट, छटपटाहट मौजूद है, वह आक्रोश को व्यक्त करने के पीछे आखिर प्रयोजन या उद्देश्य क्या है?
    मेरा मानना है व्यंग्य के पाठकों को आक्रोश से सिक्त कर कांग्रेस के दुराचरण का विरोध। व्यंग्यकार की वैचारिक ऊर्जा यहां आक्रोश के रसपरिपाक ‘विरोध’ से लैस होने के कारण ही, कांग्रेस के आचरण की निन्दा, भर्त्सना करती है। यदि यहां कांग्रेस का आचरण बदलने का विचार आक्रोश से विरोध की रस परिपाक की अवस्था तक व्यंग्यकार के मन में ऊर्जस्व न रहा होता तो शरद जोशी का यह व्यंग्य अपनी एक विशेष शैली में परिवेशगत अन्तर्विरोधों एवं स्खलित चलनों के खिलाफ तेज हथियार की भूमिका नहीं निभा सकता था। और न व्यंग्यकार का प्रयोजन या उद्देश्य सफल हो पाता।
    अस्तु भाव विचार की ऊर्जा होते हैं और वह शक्ति के रूप में अनुभावों में प्रकट होते हैं। व्यंग्य व्यंजनाशक्ति के अन्तर्गत आता है, अतः यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि व्यंग्य विरोध रसका एक वाचिक अनुभाव है जो एक विशिष्ट प्रकार की शैली में व्यक्त किया गया है। व्यंग्य के माध्यम से विरोध रस की स्थिति शरद जोशी के उल्लेखित व्यंग्य शानदार उपलब्धियों के चालीस वर्षमें अपनी परिपाक अवस्था में इस प्रकार देखा जा सकता है-‘‘ जब तक पक्षपात, निर्णयहीनता, ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह, ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा, लालच कायम है, कांग्रेस बनी रहेगी।’’
    व्यंग्यकार की उक्त पंक्तियां का अनुभावन जब व्यंग्य के पाठक या श्रोताओं के मन में होगा तो इस व्यंग्य के सही और सत्योन्मुखी पक्ष पर विचार करते हुए पाठकों में स्थायी भाव आक्रोशजाग्रत होगा और जब उनके मन को यह विचार कि कांग्रेस आचरणहीन, मुखौटेबाज, जनघाती पार्टी है, जिसे अब तो बदल देना ही चाहिए’, पूरी तरह उद्वेलित कर डालेगा तो स्थायी भाव आक्रोश, विरोधरस की निष्पत्ति करायेगा। लेकिन रस की इस समस्त प्रक्रिया को भाव के साथ विचारसे जोड़ना ही पड़ेगा। इस संदर्भ में हमें निम्न बिन्दुओं पर अवश्य विचार करना होगा-
1. भाव विचार से जन्य ऊर्जा होते हैं।
2. जिस प्रकार का विचार आश्रय के मन में अन्तिम निर्णय के रूप में सघन होता है, उसी के अनुसार कोई न कोई भाव स्थायित्व ग्रहण कर लेता है। भाव मनुष्य के हृदय में संस्कार रूप में पड़े रहते हैं, यह तर्क अविज्ञानपरक और बेबुनियाद है।
3. रस की निष्पत्ति आलम्बन से नहीं, आलम्बन के धर्म द्वारा होती है।
4. पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा गिनाये गये रसों पर ही रस-संख्या खत्म नहीं हो जाती, काव्य की वैचारिक प्रणाली ज्यों-ज्यों तब्दील होती जायेगी, रसों में भी गुणात्मकता बढ़ोत्तरी संभव है।
5. काव्य का सम्बन्ध जब आश्रय अर्थात् पाठक, श्रोता या दर्शक से जुड़ता है तो यह कोई आवश्यक नहीं कि उसमें उसी रस की निष्पत्ति हो, जो कि काव्य में अन्तर्निहित है।
7. व्यंग्य के संदर्भ में विरोध रसका परिपाक व्यंग्य अर्थात् वाचिक अनुभाव में अन्तर्निहित वक्रोक्ति, प्रतीकात्मकता, सांकेतिकता, व्यंजनात्मकता के सहारे ध्वनित होने वाले अर्थ को समझे बिना संभव नहीं।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630      


यथार्थवादी के रस-तत्त्व +रमेशराज




यथार्थवादी के रस-तत्त्व 

+रमेशराज
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    काव्य के रसात्मक-विवेचन को लेकर आदि आचार्य भरतमुनि ने काव्य के लियेजिस भाव-सत्ता को रस-निष्पत्ति के सूत्र में पिरोया थावह भाव-सत्तारस-तत्त्वों के रूप में [ रतिशोक,हासक्रोधनिर्वेदवत्सलभक्ति आदि स्थायी भावों के संचारी भावों सहित ] न पहले पूर्ण थीन अब है। अतः भावों के रूप में रस-तत्त्वों की इस अपूर्ण तालिका के आधार पर ही काव्य की सम्पूर्ण रसात्मक सामग्री को परखा जाना अशास्त्रीय और कोरा कल्पनामय ही सिद्ध होगा। रीतिकालीन काव्योपरांत कविता ने जिस प्रकार अपनी वैचारिक प्रक्रिया को बदला हैउससे उसकी रस-प्रक्रिया भी परम्परागत रस-प्रक्रिया से काफी भिन्न हो गयी है। उसमें रस-तत्त्व के रूप में ऐसे अनेक भाव जुड़ गये हैंजिनको पहचाने बिना वर्तमान यथार्थोन्मुखी कविता का रस-विवेचन नहीं किया जा सकता।
    वर्तमान कविता की स्थिति यह है कि एक तरफ जहां इसमें लोक या समाज की पीडि़तशोषितदलितआतंकितसंत्रस्तभयातुर अवस्था का अनुभव इसे शोक और करुणा से सराबोर किये रहता हैवहीं लोक या समाज को हानि पहुंचाने वाले वर्ग के प्रति इसकी भावात्मकता इसे असंतोष’, ‘आक्रोश’, ‘विरोध’, ‘विद्रोह’ आदि से सिक्त रहती है।
अतः वर्तमान यथार्थोन्मुखी कविता को जिन रस-तत्त्वों के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता हैवह परम्परागत रस तत्त्वों के साथ-साथ नये रस तत्त्वों के रूप में निम्न ठहरते हैं-
1.करुणा-
काव्य के संदर्भ में करुणा एक ऐसा रस-तत्त्व हैजिसका सम्बन्ध लोक या मानव की शोकाकुल दशाओंभाव-भंगिमाओं के माध्यम से दर्शायी गयी दुःखानुभूति से होता है। इस दुःखानुभूति को एक कवि या रचनाकार उन अनुभवों से प्राप्त करता है जो लोक या जगत की पीड़ाछटपटाहटशोषणयातनात्रासदीतनावक्षोभअश्रुपात आदि से जुड़े होते हैं। लेकिन यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह दुःखानुभूति को दुःखानुभूति के रूप में सुरक्षित नहीं रखना चाहताअपितु उसे हर हालत में सुखात्मक बनाना चाहता है। कवि-कर्म में यह दुःखानुभूति लोक-रक्षा के विचार’ से अभिसिक्त होकर प्रकट होती है। दुःखानुभूति में जुड़े लोक-रक्षा’ के विचार से उत्पन्न भाव या तत्त्व का नाम ही करुणा’ है। वर्तमान यथार्थोंन्मुखी कविता का करुणा एक ऐसा प्रधान रस-तत्त्व हैजिसका बीज-रूप अपनी विकास या गति की अवस्था में काव्य की हर प्रकार की रस-प्रक्रिया का अंग बनता चला जाता है। काव्य में आये अन्य प्रकार के रस-तत्त्व जैसे दया आदि भाव भी करुणा के इस बीज-रूप से किसी न किसी रूप में अपना सम्बन्ध बनाये रहते हैं। कुल मिलकार करुणा एक ऐसा बीज-भाव या प्रधान रसतत्त्व हैजिसका यदि दुःखानुभूति से सीधा-सीधा सम्बन्ध है तो लोक को पीड़ा-यातना देने वाले वर्ग के प्रति उभरे क्षोभअसंतोषआक्रोशविरोधविद्रोह आदि भावों के मूल में भी यही करुणा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से अपनी मुख्य भूमिका निभाती है।
    अतः वर्तमान यथार्थोंन्मुखी कविता की रस-प्रक्रिया को समझने के लिये शोषित वर्ग के प्रतिकवि के उन रागात्मक सम्बन्धों को समझना नितांत आवश्यक है जो परोक्ष-अपरोक्ष करुणा से सिक्त रहते हैं।
2. आक्रोश-
वर्तमान कविता में रसतत्त्व के रूप में आक्रोश’ एक ऐसा भाव हैजो क्रूर-अमानवीय व्यवस्था के शिकार लोक या मानव की उस आन्तरिक दशा का परिचय देता हैजिसमें दलित या पीडि़त वर्गशोषक और आताताई वर्ग के प्रति घृणाअनास्थाविरति आदि के लावे से भरा हुआ ज्वालामुखी बन जाता है। लेकिन यह लावा रौद्रता के रूप में उफन कर बाहर नहीं आता। दलितपीडि़त वर्ग की इस प्रकार की भाव-दशा के अनुभाव उसकी सुर्ख आंखोंअनवरत चुप्पीतमतमाते चेहरेतनी हुई मुट्ठियों आदि के रूप में साफ-साफ अनुभव किये जा सकते हैं। डॉ. स्वर्ण किरण के अनुसार-आक्रोश वस्तुतः व्यक्ति की आन्तरिक घृणा का मूर्त्तरूप है’;1
    ‘‘हमारे साथ अन्याय हो रहा हैहम इस अन्याय को कब तक झेलते रहेंअब अन्यायी का खत्मा होना ही चाहिए’’ जैसे अनेक विचार अपनी ऊर्जस्व अवस्था में उक्त भाव का निर्माण करते हैं। कुल मिलाकर क्रोध से अलगआक्रोश मानव की एक ऐसी भावत्मक दशा हैजिसमें क्रोध सिर्फ आन्तरिक अवस्था तक ही सीमित रहता है। रौद्रता के रस-परिपाक के रूप में यह दशा कभी भी परिलक्षित नहीं होती।
    वस्तुतः आक्रोश का रसात्मक-बोध ऐसे विरोध’ को प्रकट करता है जिसका रस परिपाक वचनों की कटुताशत्रुपक्ष की निन्दाभर्त्सनाकोसने का सतत् क्रम जैसे अनेक अनुभावों के माध्यम से अनुभूत किया जा सकता है।
सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि शत्रु के निरन्तर आघातप्रहार झेलने के बावजूदशत्रु को नष्ट न कर पाने की विवशता के विचार से उत्पन्न ऊर्जा का नाम आक्रोश’ है।
3. विरोध-
पीड़ादायकयातनामय हालात से जन्य आक्रोश’ की वैचारिक प्रक्रिया जब त्रासद हालात से उबरने के लिए नयी दशा ग्रहण करती है तो इस वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा एक नये रस-तत्त्व का निर्माण होता है जिसे विरोध’ कहा जाता है। आक्रोश का उद्भव विवशताभयछटपटाहट आदि की स्थिति में होता हैजबकि विरोध’ की वैचारिक प्रक्रिया में साहस नामक तत्त्व और जुड़ जाता है। या हम यह भी कह सकते हैं कि आक्रोश का आगे का चरण विरोध’ है। मन इस विरोध की स्थिति में [लगातार आक्रोशित रहने के कारण] पीड़ा देने वाले वर्ग के प्रति साहस के साथ उसका मुकाबला करने के लिए तैयार होने लगता है। उक्त तथ्यों को दर्शन बेजार’ की निम्न तेवरी के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
‘‘कह रहा हूं विवश हो ये तथ्य में
पल रही है वेदना आतिथ्य में।
जो विदूषक मंच पर हंसता रहा
सिसकियां भरता वही नेपथ्य में।
नर्तकी के पांव घायल हो रहे
देखता एय्याश कब यह नृत्य में।
सिर्फ समझौता नहीं है जि़दगी
एक जलती आग भी है सत्य में।
आदमी को अर्थ दे जीने के जो
लाइए तासीर ऐसी कथ्य में।’’
    उपरोक्त तेवरी में एक सामाजिक या आश्रय के रूप में कविआलम्बनगत उद्दीपन विभाव [सामाजिक विकृतियांविसंगतियां] से उत्पन्न क्षोभशोकादि के माध्यम से जिन तथ्यों को उजागर करने के लिए विवश हुआ हैवह-विवशता उसके मन में उद्बुद्ध आक्रोश की परिचायक हैजिसमें साहस जैसा तत्त्व जुड़ जाने के कारण विरोध’ का रस-परिपाक स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है।
    आश्रय के रूप में कवि जब एक विदूषक की मंच और नेपथ्य की जि़न्दगी के बीच एक त्रासदी अनुभव करता है तो उसे लगता है कि कहीं न कहीं ऐसा कुछ जरूर घट रहा है जिसमें आदमी को अपने भीतर एक संग्राम झेलते हुए भी मंच पर हंसने का नाटक करना पड़ रहा है। ठीक इसी तरह की स्थिति उस नर्तकी की भी हैजिसे किसी न किसी मजबूरी ने नृत्य करने पर विवश किया है। स्थिति यह है कि नृत्य के दौरान उसके पांव घायल हो चुके हैंलेनिक नृत्य का आनंद भोगने वाले एय्याश को इतनी फुर्सत कहां कि नर्तकी के घायल होते हुए पांव देख सके। विदूषक और नर्तकी के प्रति करुणा-भरी दृष्टि रखने वाले कवि मेंजीवन की विभिन्न स्तरों पर घटने वाली इस त्रासदी की अर्थमीमांसा यहां उसे मात्र आक्रोश से ही सिक्त नहीं कर रही हैबल्कि कवि के मन का यह आक्रोश उसे विवश जीवन के उन बिन्दुओं पर भी लाकर खड़ा कर रहा हैजिसमें जीवन का अर्थ मात्र एक समझौता या विवशता ही बनकर न रह जाएबल्कि सत्य में जलती ऐसी आग भी हो जो असत्य को जला सके। इसके लिए जरूरी यह है कि कथ्य अर्थात कर्म में ऐसी तासीर लायी जायेजो जीवन को त्रासदियों के दमघोंटू माहौल से उबार सके।
    आक्रोश से आगे की यह वैचारिक प्रक्रिया जिस विचार को ऊर्जस्व बनाती हैउसका उद्बोधन यहां भाव के रूप में विरोध’ को ध्वनित करता है। विरोध की यह ऊर्जा जो कुछ घट रहा हैगलत घट रहा है और ऐसा कुछ घटना नहीं चाहिए’ के रूप में कवि के मानसिक तंतुओं को उद्वेलित करती है और इसी कारण कवि जीवन को नये अर्थ देने के लिये कथ्य में सत्योन्मुखी तासीर लाने का आह्वान करता है।
    उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि रस तत्त्व के रूप में विरोध’ आश्रय को अपनी वैचारिक प्रक्रिया के दौरान जिस प्रकार ऊर्जस्व बनाता हैउसके माध्यम से गलत आचरणों के प्रति मात्र वह आक्रोशित ही नहीं रहताबल्कि हर गलत’ के प्रति जूझने या साहस दिखाने के लिए प्रेरित भी करता है।
4. असंतोष-
हम सब [सामाजिक प्राणी होने के नाते] एक दूसरे के प्रति कोई न कोई अपेक्षा रखते हुए जीते आ रहे हैं। जब कोई मनुष्य अपनी अपेक्षा के अनुकूल दूसरी मनुष्य को व्यवहार करता हुआ नहीं पाता है तो पहले मनुष्य में दूसरे मनुष्य के व्यवहार के प्रति असंतोष’ का भाव जाग्रत हो जाता है। अपेक्षाओं के स्तर पर असंतोष की इस प्रक्रिया का स्वरूप हमें समाज के कई स्तरों पर दिखायी देता है। उद्योगपतियों से जिस प्रकार अच्छा या अधिक वेतन या अनेक सुविधाएं पाने की अपेक्षा मजदूर वर्ग रखता हैठीक इसी प्रकार की अपेक्षाएं सरकार से सरकारी कर्मचारी रखते हैं। उद्योगपतियों या सरकार द्वारा उचित या अधिक वेतन न दिये जाने पर मजदूर या सरकारी कर्मचारियों की आये दिन होती हड़तालोंप्रदर्शनों में व्याप्त असंतोष को स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। ‘‘ जो कुछ हमें मिल रहा है या सुविधा के नाम पर प्राप्त हो रहा हैवह उचित और पर्याप्त नहीं है’’ जैसे अनेक विचारों से निर्मित होने वाला असंतोष आज की कविता में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण किये हुए है। इस असंतोष की स्थिति आक्रोश से निम्न संदर्भों में भिन्न है-
[क] आक्रोश की स्थिति में आश्रयों के मन के भीतर विवशताभय और दुःख का समावेश हर स्थिति में रहता है जबकि असंतोष रसपरिपाक तक जब पहुंचता है तो उससे भय की सत्ता समाप्त हो जाती है।
[ख] आक्रोश में कटुवचनों का प्रयोगशत्रुपक्ष की निन्दाभर्त्सना या शाप देनेकोसने आदि की क्रिया विवशताअसहायतानिरुपायता तक ही सीमित रह जाती हैजबकि असंतोष में विवशता या असहायता मन को जब उद्वेलित या अशांत बनाती है तो शत्रुपक्ष के प्रति हर प्रकार का संघर्षचुनौती और साहस में तब्दील हो जाता है।
[ग] आक्रोश और असंतोष की रस-परिपाक सम्बन्धी अवस्था ऊपरी तौर पर एक जैसी भले ही लगेंकिन्तु यदि हम सूक्ष्मता के साथ विवेचन करें तो रस-परिपाक तक पहुंचते-पहुंचते असंतोष’ अवज्ञा ललकारचुनौती में अनुभावित होता है तथा ‘विद्रोह’ का उद्बोधन कराता हैजबकि आक्रोश की स्थिति अवज्ञाललकारचुनौती तक पहुंचने के लिये विरोध’ के रूप में सांकेतिकता में ऊर्जस्व होती है। अर्थ यह कि आक्रोश का रस-पारिपाक  शत्रुपक्ष या कुव्यवस्था से टकरानेजूझने का जहां एक दिशा-संकेत-भर होता हैवहीं असंतोष’ का रस पारिपाक जूझनेटकरानेचुनौती देनेललकारने जैसी अनेक क्रियाओं का अनुभावन बन जाता है।
रसतत्त्व के रूप में असंतोष’ को श्री योगेन्द्र शर्मा की तेवरी के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
सर पै बस आकाश की ही छत मिली
जि़न्दगी को इस तरह राहत मिली।
एक सुविधा इस तरह से दी गयी
हर किसी की भावना आहत मिली।
    ‘असंतोष’ के संदर्भ में यदि हम उक्त पंक्तियों का विवेचन करें तो कवि ने यहां आम आदमी की उस जि़न्दगी का जिक्र किया है जिसे आवास के नाम पर कुछ भी नहीं दिया गया है। वह आज भी फुटपाथों पर खुले आकाश के नीचे जाड़ा-पालाओलावर्षाधूपादि की मार सहते हुए जी रहा है। इसी कारण इस कथित या महज क़ाग़जों पर दी गयी सुविधा ने उसकी भावनाओं को असंतोष से भर डाला है। भावना को आहत’ बताकर दर्शाया गया यह असंतोष कोयले की खानों के बीच कोयला होते मजदूरों को यदि क्रान्ति के लिए प्रेरित कर उठे तो क्या आश्चर्य-
कोयल-सी जिन्दगी अब तक जिये हैं
खान के मजदूर जैसे हम रहे हैं।
जब कभी भी क्रान्ति बोयी है समय ने
तिलमिलाते-सोच के पौधे उगे हैं। [गजेन्द्र बेबस]
    तात्पर्य यह कि असंतोष एक ऐसा रसतत्त्व हैजो अपनी ऊर्जस्व अवस्था में मन को इतना उग्र बना डालता है कि लोक या मानव क्रान्ति के लिये विद्रोह से सिक्त होने लगता है।
विद्रोह-
सामाजिकराजनीतिकधार्मिक और आर्थिक व्यवस्था के समीकरण जब लोक या जगत में असफल या असन्तुलित होने लगते हैंमनुष्य के अथक प्रयाससंघर्ष आदि के उपरांत भी जब कोई वांछित या अपेक्षित हल नहीं निकल पाता तो असंतुलित समीकरणों से जूझते सामाजिक प्राणी अपने भीतर पनपी असंतोष और अशान्ति की अवस्था को समाप्त करने के लिये [उस हर प्रकार की व्यवस्थाजो उन्हें तोष प्रदान नहीं कर पाती] में परिवर्तन या बदलाव तीव्र इच्छा रखने लगते हैं। परिवर्तन की यह तीव्र इच्छा अपनी विभिन्न प्रकार की वैचारिक प्रक्रियाओं से गुजरते हुएसिर्फ इस निर्णय की प्रक्रिया बनकर रह जाती है कि अब सीधी अंगुली से घी नहीं निकलने वालाअर्थात् इस व्यवस्था को बदलने के लिये इसके व्यवस्थापकों से टकरानेयुद्ध करनेउनके आदेशों की अवज्ञा करने के अलावा कोई चारा नहीं।’’
    परिवर्तन की तीव्र इच्छा रखने वाली यह वैचारिक प्रक्रिया अपनी उर्जस्व अवस्था में विद्रोह’ नाम से जानी जाती है। व्रिदोह का यह वैचारिक स्वरूप जितना तर्कसंगतमानवसापेक्ष और लोकहितकारी होगाउतना ही सत्य शिव और सौन्दर्य की वास्तविक स्थापना के निकट होगा। मार्क्सवादी विचारधारा के तहत रूस में हुआ सशस्त्र विद्रोहजिसे क्रान्ति के नाम से जाना गयानिस्संदेह मानव मूल्यों की स्थापना पर आधारित था। ठीक इसी प्रकार का विद्रोह सरदार भगतसिंहचन्द्रशेखरसूर्यसेनअशफाक आदि ने अंग्रेजों की आताताई व्यवस्था के विरुद्ध किया थाजिसके मूल में अंग्रेजों की कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति भारतीय जनता का वह असंतोष थाजो विद्रोह के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार की क्रियाप्रक्रिया से हल या समाप्त नहीं हो सकता था। लेकिन हमारे राष्ट्र का दुर्भाग्यक्रान्तिकारियों के सपने साकार न हो सके। आजादी के नाम पर यहां के तस्करोंसेठोंचोरउचक्कों को आजादी मिली। परिणाम सामने हैजिस प्रकार असंतोष भारतीय जनता में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रति थाठीक उसी प्रकार का असंतोष इस वर्तमान व्यवस्था के प्रति जन समुदाय में परिलक्षित होने लगा है। अन्ना हजारे की व्यवस्था को बदलने की मुहिम असंतोष का वर्तमान में सटीक उदाहरण माना जा सकता है।
    साहित्य चूकि समाज का दर्पण होता हैइसलिये आज की कविता वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष से सिक्त होने के कारण विद्रोह का स्वर मुखरित कर रही है। तेवरी चूंकि जन मूल्योंलोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था रखने वाली काव्य की विधा हैअतः वर्तमान व्यवस्था के प्रति इसका रसात्मकबोध विद्रोह से सिक्त न होऐसा हो ही नहीं सकता। श्री अनिल कुमार अनल’ अपनी एक तेवरी में विद्रोह का परिचय इस प्रकार देते हैं-
देश भर में अब महाभारत लिखो
आदमी को क्रान्ति के कुछ खत लिखो।
बाग में अब चहचहाहट है नहीं
हर परिन्दा है यहां आहत लिखो।
होने लगा आक्रोश लोगों में युवा
बाजुओं में आ गयी ताकत लिखो।
एक पगड़ी-सा उछाला है जिसे
अब नहीं जायेगी वह इज्जत लिखो।
खेलना अंगार से हर दौर में
है हमारी आज भी आदत लिखो।
    तेवरी के संदर्भ में रसतत्त्वों की यह खोज मात्र करुणाआक्रोशविद्रोहअसंतोष और विद्रोह तक ही सीमित नहीं रह जातीइसके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक रसतत्त्व तेवरी में उपस्थित होते हैंजो इस विधा को उर्जस्व बनाये रखने में अपना सहयोग देते हैंलेकिन इन सहयोगी रसतत्त्वों की व्यापकता में न जाते हुए हम सिर्फ इतना ही कहना चाहेंगे कि जिन तत्त्वों की विवेचना हमने इस आलेख में की हैयह रस तत्त्व वर्तमान कविता या तेवरी के प्रधान रसतत्त्व हैंजिन्हें पहचाने बिना आधुनिक कविता के रसात्मकबोध को नहीं समझा जा सकता।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

Monday, June 13, 2016

पुस्तक- “ विचार और रस “ में रस पर नवचिन्तन + डॉ.ललित सिंह





पुस्तक- “ विचार और रस “ में रस पर नवचिन्तन

+ डॉ.ललित सिंह
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   विवेचनात्मक निबन्धों की विचारोत्तेजक किन्तु गंभीर चिन्तन से युक्त रस-चिंतक रमेशराज की कृति “विचार और रस ”, रस को विचार की कसौटी पर जांचने-परखने के लिए नये सूत्र प्रदान करने वाली एक सफल प्रयास मानने में मुझे कोई हिचक इसलिए नहीं है क्योकि इस पुस्तक में यह तथ्य पूरे प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया गया है कि हर प्रकार के भाव का निर्माण किसी न किसी विचार से होता है | लेखक की स्पष्ट मान्यता है कि विचार ही भाव के जनक या पिता होते हैं |
   इस पुस्तक में रमेशराज ने अनुभव, अनुभाव और अनुभूति में अंतर स्पष्ट कर यह बताने का प्रयास किया है कि अनुभाव, भाव के बाद की यदि क्रिया है तो अनुभव इन सबसे अर्थ ग्रहण कर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने का एक प्रक्रम | अनुभव अनेक प्रकार के होते हैं तो अनुभूति सिर्फ दो ही प्रकार की होती है- दुखात्मक और सुखात्मक | अनुभाव, अनुभव और अनुभूति के त्रिकोण से लेखक ने साहित्य-सर्जन की जटिल प्रक्रिया को सहज-सरल बनाने का प्रयास किया है तथा काव्य को रागात्मक-सम्बन्धों की प्रस्तुति के रूप में रेखांकित किया है | रमेशराज का कहना है-“ काव्य योग की साधना, सच्चे कवि की वाणी तभी बन सकता है जबकि वह कविता जैसे मूल्य को मानवीय चिन्तन-मनन की सत्योंमुखी दृष्टि के साथ प्रस्तुत करे |”
   प्रस्तुत कृति में ‘ विचार और भाव ‘ तथा  ‘ विचार और रस ‘ पर तीन, ‘ विचार संस्कार और रस ’ पर चार निबन्ध हैं | इसके अतिरिक्त ‘ सहृदयता ‘, ‘ विचार और सहृदयता ‘, ‘आस्वादन ‘, ‘ भाव और ऊर्जा ‘, ‘ विचार और ऊर्जा ‘, ‘ काव्य में अलौकिकता ‘, ‘ काव्य में सत्य शिव और सौन्दर्य ‘ नामक निबन्धों में मौलिक तरीके से चिन्तन कर काव्यानुभूति को भावानुभूति से ही नहीं विचारानुभूति से जोड़कर रसानुभूति को समझने-समझाने का उत्तम प्रयास किया है |
   रसानुभूति में रसाभास या द्वंद्व की स्थिति को समझाते हुए इसका समाधान नये रसों की ओर संकेत कर दिया गया है | लेखक की यह भी स्पष्ट मान्यता है कि काव्य में अलौकिकता जैसा कोई तत्त्व नहीं होता |
   वैचारिक एवं भावनात्मक पक्ष पर विशेष बल देते हुए काव्य-सम्वेदना में सत्य को यथार्थ रूप में स्वीकार कर लेखक स्पष्ट घोषणा करता है _” जो काव्य सामाजिक को पलायनवादिता या व्यभिचार का विष नहीं देता, वही सत्साहित्य है | कविता सच्ची कविता तभी है, जबकि वह स्वार्थमय जीवन की विरसता और शुष्कता को समाप्त कर मानवीय जीवन में चिर और पवित्र सौन्दर्य की स्थापना करती है |”
   निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आज के भौतिक आपाधापी से भरे युग में भी रस को काव्य-निकष के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले रस-आचार्यों की कमी नहीं है | रमेशराज ने रस की निष्पत्ति को विचार या बुद्धि से जोड़कर रस-परम्परा को इस पुस्तक के माध्यम से जो नये आयाम दिए है, वे चौंकते ही नहीं, आज की वैचारिक काव्य-सामग्री को समझने-परखने में पूरी तरह सहायक भी हैं | प्राचीन आचार्यों की रस-दृष्टि जिस प्रकार रसानुभूति का विवेचन करती आ रही है, उस विवेचन के भाव-पक्ष में रमेशराज ने विचार-पक्ष को जोड़कर नयी कविता में ‘ विरोध ’ और ‘ विद्रोह ‘ रस को स्थापित करने की एक ईमानदार कोशिश की है | नये स्थायी भाव ‘ आक्रोश ‘ और ‘ असंतोष ‘ का उद्घोष किया है | जो हर प्रकार स्तुत्य है |
   वर्तमान यथार्थवादी कविता को रस के आधार पर समझने में श्री रमेशराज की पुस्तक “ विचार और रस “ सहायक ही नहीं होगी बल्कि विद्यार्थियों, शोधार्थियों, काव्य-समीक्षकों और सुधी पाठकों के लिए नवचिन्तन के द्वार खोलेगी, उन्हें एक नयी ऊर्जा प्रदान करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है |
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 + डॉ.ललित सिंह, आर. के. पुरम, सासनी गेट, आगरा रोड, अलीगढ़-202001

Saturday, April 9, 2016

रस का सम्बन्ध विचार से +रमेशराज




रस का सम्बन्ध विचार से

+रमेशराज
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किसी भी प्राणी के लिए किसी भी प्रकार के उद्दीपक [स्वाद, ध्वनि, गंध, स्पर्श, दृश्य] के प्रति मानसिकक्रिया का प्रथमचरण संवेदना अर्थात् उद्दीपक की तीव्रता, स्वरूप आदि के समान वेदन [ज्ञान] की स्थिति होती है। जब तक प्राणी इस ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण अर्थात् उसे कोई अर्थ नहीं दे पाता, तब तक उस प्राणी के अंदर एक ऐसी स्थिति बनी रहती है, जिसे किसी भी प्रकार स्पष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन जब प्राणी उस उद्दीपक के प्रति जन्मी संवेदना को अर्थ प्रदान कर वैचारिक रूप से ऊर्जस्व होता है तो उसके मन में एक भावदशा उद्बुद्ध  होती है, उसी का प्रकटीकरण अनुभावों से होता है।
संवेदना के बिना किसी भी प्राणी में भावदशा का निर्माण संभव नहीं है। संवेदना का मूल स्त्रोत हमारी इंद्रियाँ हैं, जिनके द्वारा प्राप्त ज्ञान को मानव अपने मस्तिष्क में स्मृति-चिन्हों के रूप में एकत्रित करता रहता है। वस्तुतः यही ज्ञान मनुष्य के अनुभव, अनुभूति और रस आचार्यों द्वारा बताए गए ‘स्थायी भाव’ का विषय बनता है।
    इंद्रियबोध से लेकर अनुभाव, अनुभव और अनुभूति की इस जटिल प्रक्रिया में मनुष्य अपनी चिंतन दृष्टि के सहारे जिस प्रकार के निर्णय लेता है, उसमें उसी प्रकार के भाव जागृत हो जाते हैं। इन भावों की पहचान हम अनुभावों के सहारे करते हैं। प्रेम, हास, उत्साह, क्रोध, भय, घृणा आदि के निर्माण की प्रक्रिया हमारी निर्णय क्षमताओं के अंतर्गत ही देखी जा सकती है। मनुष्य का समूचा मनोव्यवहार इतना जटिल है कि हम किसी भी उद्दीपक को दुःखात्मक या सुखात्मक अनुभूतियों का विषय गणित के नियमों की तरह नहीं बना सकते। उद्दीपक के रूप में कोई भी सामग्री, दुःखात्मक या सुखात्मक, हमारे निर्णयों, वैचारिक अवधारणाओं के अनुसार होती है। अर्थात् अपने इंद्रियबोध के माध्यम से हम जिस प्रकार के निर्णय लेते हैं, हमारे मन में उसी प्रकार के भाव जागृत हो जाते हैं। भिखारी को हाथ पसारे हुए देखकर एक व्यक्ति में करुणा और दया उद्बुद्ध हो सकती है। वह उसकी सहायता के लिए कुछ पैसे उसके कटोरे में कुछ पैसे डाल सकता है, जबकि दूसरे व्यक्ति में भिखारी के प्रति घृणा और क्रोध के भाव जागृत हो सकते हैं, वह उसको समाज का कोढ़ मानकर गालियाँ दे सकता है। इसके विपरीत तीसरे व्यक्ति के मन में भिखारी के कटोरे में पड़े पैसों को देखकर लालच पनप सकता है। वह भिखारी से पैसों को छीनने का विचार बना सकता है। भिखारी के प्रति पनपी उक्त प्रकार की विभिन्न भावदशाएँ, वस्तुतः मनुष्य के उन वैचारिक निर्णयों की देन है, जो संस्कारित मूल्यों के कारण बनते हैं।
    एक शोषक के मन में शोषित व्यक्ति की दयनीय दशा, करुणा के संवेगों का सचार इसलिए नहीं कर पाती, क्योंकि उसके संस्कार शोषक विचारधाराओं के पोषक होते हैं, जबकि एक मानवीयदृष्टि से युक्त लेखक या व्यक्ति शोषितों की दयनीय, निर्बल और असहाय दशा देखकर करुणा से द्रवीभूत हो उठता है।
    किसी भी व्यक्ति के लिए प्रेम जैसी सुखात्मक अनुभूति, आवश्यक नहीं है कि उस व्यक्ति को सुखात्मक अनुभूति की ओर ही ले जाये और उसमें हर स्थिति में कथित रति ही जागृत हो, जिसका परिपाक शृंगार-रस  के रूप दिखायी दे। सच तो यह है कि हर सामाजिक अपनी अवधारणाओं, मान्यताओं के अनुसार ही विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रेम-तत्वों का निर्धारण करता है और उक्त प्रेम तत्व को अपनी मान्यताओं के आधार पर अनुभाव में प्रकट करता है। हर नारी को देखकर पुरुष में एक ही प्रकार की रसदशा जागृत नहीं हो जाती। माँ, बहिन, पत्नी, प्रेमिका आदि के प्रति प्रकट किया गया प्रेम, मानव के संस्कारित वैचारिक मूल्यों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के भावों में उद्बुद्ध होता है।
    कविता चूंकि समाज द्वारा समाज के लिए लिखी गई रागात्मक संबंधों की वैचारिक प्रस्तुति है, अतः उस पर सामाजिक मान्यताओं, परिस्थितियों, आस्थाओं, संस्कारों का प्रभाव न पड़े, ऐसा संभव ही नहीं। भक्तिकालीन कवि गोस्वामी तुलसीदास यदि नारी की संवेदनशीलता को एक ओर रख, उसे प्रताड़ना की अधीकारिणी बना डालते हैं तो रीतिकालीन कवि उसी नारी को एक भोग-विलास की वस्तु मानकर उसके साथ रास रचाते हुए कथित आनंद अवस्था को प्राप्त होते हैं, जबकि मैथिलीशरण गुप्त उसी नारी को अबला, प्रताडि़त, असहाय और दलित अनुभव करते हैं। नारी के प्रति भक्तिकाल में उद्बुद्ध क्रोध करुणा और दया के भाव कवियों की मान्यताओं, वैचारिक अवधारणाओं के कारण ही काव्य में भिन्न-भिन्न रसों का विषय बने हैं।
    वस्तुतः मनुष्य की वृत्तियाँ, प्रवृत्तियाँ उसकी वैचारिक दृष्टि के कारण जन्म लेती हैं, विकसित होती हैं तथा इन्हीं वृत्तियों के अनुसार व्यक्ति में घृणा, वात्सल्य, करुणा, दया, शृंगार आदि की निष्पत्ति होती है। व्यक्ति की इन विचारधाराओं को समझे बिना किसी भी प्रकार की रागात्मकवृत्ति के विश्वव्यापी प्रसार, विस्तार की कल्पना नहीं की जा सकती। काव्य योग की साधना , सच्चे कवि की वाणी तभी बन सकती है जबकि वह कविता जैसे मानवीय मूल्य को चिंतन-मनन की सत्योन्मुखी दृष्टि के साथ प्रस्तुत करे। अगर वह ऐसा करता है तो उसे विधि के बनाए जीवों के प्रति तरह-तरह की आशंकाएँ उत्पन्न होने लगेंगी और वह रीतिकालीन कवि ठाकुर की मान्यता- ‘विधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ, खेलत फिरत तिन्हें खेलन फिरन देव’, को जब अनुभव और तर्क की कसोटी पर परखेगा तो वह अपनी मानवीय संवेदनशीलता के कारण यह कदापि नहीं चाहेगा कि जो जीव जहाँ खेल रहा है, वहीं उसे खेलने दिया जाये। वह बच्चे को आग के, मेमने को शे’र के, शोषित को शोषक के चंगुल से बचाने का प्रयास करेगा। यही बचाने का प्रयास जब शेष प्रकृति के प्राणियों के सुख सौंदर्य के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करेगा तो रक्षा, करुणा, दया, विरोध और विद्रोह जैसी रसात्मक अवस्थाओं में उद्बुद्ध हो उठेगा। 
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630